Tushar Bhoi   (तुषारावरण-the frozen crystals)
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Joined 11 January 2018


Joined 11 January 2018
15 DEC 2019 AT 15:58

बैठक के कोने पड़े दीवान पे रजाई में आधा घुसे पैर और माथे पे कश्मकश की सिलवटें बाईं गाल पे हथेली की चाप

और फिर ऐसे में अचानक कांच के प्याले में कुल्हड़ में कांसे की तश्तरी में जि़न्दगी का छनकर आना #tea_day

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1 NOV 2019 AT 7:39

He never belonged the Herd.....
The moment he realised,
His hoWlinG at the
BLuE MooN was spectacular

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21 SEP 2019 AT 11:17

संस्कृति और तहज़ीबों का मेल भी शायद इस जमीन पर उतना पावन और पाक हो पाता जितना आब और पानी का संगम होता है

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20 JUL 2019 AT 23:29

ମନ ର ସଂତାପ ଲିଭେଇବାକୁ ସତେ
ଆସନ୍ତି ନି ମେଘ କେହି..
କେତେକ ଶ୍ରାବଣ ଏମିତି ଅଗଣା ରେ
ଦେଖିଲି ମୁଁ ବାଟ ଚୀହିଂ...
ବରଷା ର ବିଂଦୁ ଶୁଣିଲି ପଡ଼ୁଛି
ଶୁନ୍ଯ ସାଗରରେ ଜାଇ...
ବୁକୁ ମୋର ଜଳେ ହୁତୁ ହୁତୁ ହୋଇ
ନାମକୁ "ତୁଷାର" ମୁହିଂ....

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30 JUN 2019 AT 21:29

मुहाज़िर फिरता हूँ अपने ही आब-ओ-अज़दाद में ज़हन में एक ही उलझन लिए....
जहाँ से राब्ता है अब वहाँ से वास्ता क्यों नहीं रहा........


[ मुहाज़िर-immigrant
आब- ओ -अज़दाद - ancestral territory
ज़हन- mind
राब्ता- connections..]

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5 JUN 2019 AT 4:44

अजीबोगरीब मजबूरियाँ पाल रखी हैं ज़िंदगी ने ऐ ग़ालिब,
बेगानों के शहर में बसर करना है अपनों से बैर रखकर..

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12 MAY 2019 AT 0:34

My ldentities my roots my being everything that defines me is entangled firmly with ur stole knot....

CRAFTED in "PASAPALLI" checkers with pride

POURED with luscious sweet and sour delicacy of "LETHA"

ENCHANTED in the euphonic lullabies of
"JANHA MAAMU"

Everything else that has been Cooked up
is fabricated.. fallacious ..and delusional..

HAPPY MOTHERS DAY

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23 NOV 2018 AT 1:11

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका-बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दोपहरी जैसी माँ
चिड़ियों के चहकार में गूंजे
राधा-मोहन अली-अली
मुर्ग़े की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी माँ
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा, माथा,
आँखें जाने कहाँ गई
फटे पुराने इक अलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ...
-निदा फ़ाज़ली

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30 OCT 2018 AT 2:08

अहम की दलदल में धँसे हुए लोग, सियासी बेड़ियों में कसे हुए लोग..
करते हैं सरज़मीं की बातें, ये कागज़ी नक्शों में बसे हुए लोग..

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28 AUG 2018 AT 14:33

टूटते तारे सी थी मौजूदगी मेरी, यकीनन कुछ लम्हों की तुम्हारे आसमान में,
आफताब की तरह आज भी तुम मेरे सुबह-ओ-शाम लिखते हो।

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