सबको पूर्ण करने वाली
खुद अन्दर से अधूरी रह गई,
उसके लिए नहीं किया किसी ने त्याग
नहीं किया कोई संघर्ष,
नही समर्पित कर पाया
कोई खुद को उसके लिए।
उसका दिल
प्यार के झरने के लिए तड़पता है;
जो बाहर तो बहता है
लेकिन रिस के अन्दर नहीं जाता।
बाहर बहकर वो सूख जाता है बाहर ही।।-
बदले की आग जब
बरस रही है पूरे देश में,
झुलस रही है मानवता उसमें
अत्यंत दयनीय स्थिति में,
तार- तार हो चुकी है
समस्त संवेदनाएंँ,
रहने - खाने के किए
जब कुछ भी नहीं बचा है,
ऐसे में भी
मैं नहीं छोडूंगा तुम्हारा हाथ,
पूरी दुनिया से अलग बचा लूंँगा मैं तुम्हें,
बचाऊंँगा-
क्योंकि मुझे मरना है तुम्हारे साथ।।
- तुलसी गर्ग
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तुझसे मोहब्बत की ये कैसी सज़ा मिली,
ताउम्र कैद में रहने की मुझको सजा मिली।
अच्छा होता जो कुछ बोलकर जाते,
सब कुछ आप कहने की मुझको सज़ा मिली।
वस्ल की रातों का जो नक़ाब हटा तो
आंसूओं के बहने की मुझको सजा मिली।
तुमने जो थामा था हाथों को इक बार
उन हाथों को सहने की मुझको सजा मिली।
कैसे समझ पाई ना " हमारे प्यार" को,
तुम्हारे चुप रहने की मुझको सजा मिली।।
- तुलसी गर्ग
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प्रेम करो
लेकिन शादी मत करो
प्रेमी से,
क्यों?
क्योंकि
बंध जाओगे शादी बाद?
बढ़ जाएंगी जिम्मेदारियां?
गृहस्थी का बोझ आ जाएगा सर?
बच्चों के बीच होकर रह जाएगा जीवन.?
या इसलिए कि
शादी ना करने से
बच जाएंगी तुम्हारी जातियां,
सजे रहेंगे तुम्हारे संस्कार,
बनी रहेगी तुम्हारी "मर्यादा"।
तुम्हारे "नैतिकता के फूल"
पर चलने से जरुर बचेंगे ये सब
मर जाएंगे तो मात्र प्रेमी - प्रेमिका।।
- तुलसी गर्ग
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कम उम्र में ही
जिन विवाहित पुरुषों की
हो गई मृत्यु
उसकी जिम्मेदार
ज़रूर होंगी उनकी पत्नियां,
नही रखा होगा उन्होनें
करवाचौथ जैसा व्रत,
नही किया रहा होगा श्रृंगार,
नही पहनी होगी बिछिया,न मंगलसूत्र
हो सकता है किसी ने ना लगाया रहा हो सिंदूर
लेकिन
कम उम्र में मृत्यु हुई
जिन विवाहित स्त्रियों की
उनका कौन जिम्मेदार?
किसने तोड़े व्रत,
किसने नहीं किया श्रृंगार?
"शायद औरत खुद ही रही जिम्मेदार
अपनी मौत की"।।
- तुलसी गर्ग-
पुरुष चुप हैं
नही बहा रहे आंँसू
इसलिए नहीं कि-
उनके ह्रदय में अकाल पड़ा है,
इसलिए कि-
उन्हें पता है
जिस दिन ह्रदय से पिघलेगी एक बूंद
उस दिन बह जाएंगे
विश्व के तमाम पर्वत।।
- तुलसी गर्ग
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हर पल आंखो में छाई नमी की सच्चाई को हम बताएं कैसे,
दिल में पत्थर रख अब हम होठों से मुस्कुराएं कैसे?
किसी और के कंधे पर अब वो अपना सर रखता है,
ये देख बताओ अब अपने मन को हम बहलाएं कैसे?
उसके साथ रह तो हम तारे भी ज़मीन पर ला दिया करते थे,
अब दरिया सामने होकर भी हम अपनी प्यास बुझाएं कैसे?
बड़ी बेदर्दी के साथ मिटा दी उसने मरे हाथ से अपने नाम की लकीरें,
अब उन जख्मी हाथों में हम किसी और का नाम रचाएं कैसे?
जान कह के जान ही निकाल ली उसने मेरे शरीर से
अब इस जिंदा लाश को बताओ हम जलाएं कैसे??
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आंखे टकराती हैं, फिर चैटबॉक्स पर बातें गुदगुदाती हैं,
मिलने की चाहत में सारी बंदिशें तोड़ दी जाती हैं,
ना जाने कितने झूठे वादों और कसमों की
रस्सी से प्रेमिका की जिंदगी बांध दी जाती है,
फिर सात जनम क्या,सात महीने क्या,सात दिन के भीतर ही उस पर बेवफाई की चादर उढ़ा दी जाती है।
सूरज, चांँद- तारे, धरती, आसमान सबको
उसके बिना अधूरा बताया जाता है,
कुछ इस कदर माशूका का मन बहलाया जाता है,
एक को अपने में समेट दूसरी के लिए भी
इन्हीं बिंबो को अपनाया जाता है,
बेहयाई तो इतनी की अपने तथाकथित प्रेम के वर्णन में राधा- कृष्ण को आधार बनाया जाता है।
आज के युग में कहां किसी को किसी से प्यार होता है,
अब तो मात्र जिस्सों का व्यापार होता है,
रूह में उतारने की तो सिर्फ बात रह गई है,
वरना अब तो पहली मुलाकात में ही प्रेमिका का दुप्पटा प्रेमी के हाथों गिरफ्तार होता है।।-
किसान खेत में अनाज पैदा करता है,
कवि कविता में भाव पैदा करता है।
मजदूर समान का बोझ उठाता है,
कवि शब्दों का भार उठाता है।
दुकानदार समान दे पैसे कमाता है,
कवि ज्ञान दे अनुभव पाता है
डॉक्टर प्रत्येक बीमारी का इलाज बताता है,
कवि हर एक के हृदय का हाल बताता है।
समाचार पत्रों पर प्रतिदिन एक नई खबर छपती है,
कवि के कल्ब में हर रोज एक नई रचना पलती है।
एक श्रेष्ठ नेता देश आगे बढ़ाता है,
एक उन्नत कवि साहित्य ऊपर उठाता है।
देशभक्त तलवार की क्रांति जानता है,
कवि कलम की क्रांति पहचानता है।
डॉक्टर, पत्रकार, दुकानदार सब का काम एक लेखक कर लेता है,
लेकिन क्या लेखक का काम ये सब मिलकर कर पाते हैं?
शब्द तो सभी सजा लेते हैं,
लेकिन क्या इनमें से दो एक भी शब्दों कि गहराई में उतर पाते हैं?-
हमारा प्रेम जैसे एक अनंत अंबर
जिसमें सूर्य और चंद्र किसी पहर साथ दिख तो जाएंगे
लेकिन अनेक प्रयासों के बावजूद पास आने में विफल हो जाएंगे।
एक किनारा वो , एक किनारा मैं
और बीच में बह रहा था एक दरिया,
तड़प रहे थे दोनों छोर आपस में मिलने को
लेकिन उनके मिलने का कोई नहीं था जरिया।
मैं उपवन में खिली एक नादान कली सी,
और वो उस उपवन का माली;
जो हर दिशा में अपना मन रमाता
लेकिन मैं केवल उस पर अपना ध्यान लगाती
अन्य बेहद खूबसूरत कालियों के बीच मैं उसे
अपनी आेर कैसे बुलाती,
सो हर वक़्त मुरझा सी जाती।
क्या मुझे ठीक करने वो आएगा मेरे पास?
अब मन में जागृत थी केवल यही एक आश।
नज़्म, ग़ज़ल, शायरी, कविता अब सब उदास हैं,
कलम में भी बसी मात्र उसी की याद है,
लिखने चलती हूं अब कुछ भी तो वो अधूरा रह जाता है,
ये दरिया, कली, सूरज, चांद कुछ भी ना उसे पूरा कर पाता है।
दिल अब टूट चुका है,
जिंदगी का फूल मुरझा चुका है,
मोहब्बत का दीपक बुझ चुका है,
प्रकृति भी अब विरह रूप में ही चित्रित होती है,
रातें दिल में अब कांटे चुभोतीं है,
हर पल, हर लम्हा, हर क्षण अब एक सा हो गया है,
उसकी यादों के तले जीवन अब एक जिंदा लाश सा हो गया है।।
- तुलसी गर्ग
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