टेकचंद राजपूत   (Thakursahab)
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Joined 17 March 2019


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Joined 17 March 2019

किसी से उम्मीद रखने की
जो ये तेरी रज़ा है...
ऐ दिल तेरी यही सज़ा है...
हर बार टूटती है उम्मीद तेरी...
फिर भी रखता है...
बार बार उम्मीद रखने में क्या मज़ा है
ऐ दिल तेरी यही सज़ा है...

रज़ा सज़ा...
The Tek

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कोई बतलाओ तो सही...
मेरा हाल...
मुझे ही जानना है...

The Tek

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ख़ुद का हाथ थामा और
ख़ुद ही के हो लिए हम...
और जब भी हुआ मन रोने का...
ख़ुद को गले लगाया और रो लिए हम...

रो लिए हम...
The Tek...

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ग़मों की रौश्नाई से जो ग़म लिक्ख़ा...
रौश्नाई ने कहा साहब कम लिक्ख़ा...
मैं भी था और थे तुम भी वहीं...
मज़ा तो तब आया जब हम लिक्ख़ा...

ग़म लिक्ख़ा...
The Tek...

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कोई ज़िंदा जिस्म जनाज़ा हुआ है...
वक़्त का फिर से तक़ाज़ा हुआ है...
ऐ मरहम वालों मरहम इकट्ठा करो...
कोई ज़ख़्म फिर से ताज़ा हुआ है...

The Tek...
मैं_तू...

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बे तरतीब बिखरा हूँ मैं मुझे तरकीब से सँवारो तुम...
चलो एक बार फिर से मुझे मेरे नाम से पुकारो तुम...

The Tek

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मैं फिर से देखो दिल को दुखा बैठा...
गैरों के चक्कर मे अपनो को भुला बैठा...
...
😊😊😊

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तुम ख़ुद ही लुटाते रहे हम पे इश्क़ अपना...
अपनी तो महज़ इतनी सी ख़्वाहिश थी...
कि तुम जहां भी रहो जैसे भी रहो ख़ुश रहो...
...😊😊😊

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हमें बाँधने की कोशिश तो हर रोज होती है...
पर हम उन्मुक्त हमारी रजा कुछ और होती है...
हमीं बंध गए तो फिर हम क्या हमारी बात क्या...
हम करते कुछ और हैं वजह कुछ और होती है...
ढलना पड़ता है वक़्त को हमारे ही हिसाब से आख़िर
हमारी तो वक़्त से भी बग़ावत हर रोज होती है...
हमें तो है फ़क़त उसी रब का भरोसा भी सहारा भी...
उसके सज़दे में सर झुकते हैं इबादत रोज होती है...
...😊😊😊

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जो चाहें और वो ही नफ़रत करें...
ये बेमानी होगी चाहत के साथ...
चाहत नफ़रत दो कदम हैं...
जो चल नहीं सकते एक साथ...

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