Tripti Sinha   (©Tripti sinha❤NAVODAYAN❤)
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Joined 3 July 2018


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Joined 3 July 2018
13 JUL AT 9:30

एक औरत वक्त आने पर,
भूल सकती है-
अपना बेटी,बहन,बहू और माँ होना
और बन जाती है सिर्फ़ एक पत्नि !
पर मर्दों से इसकी उम्मीद करना
सिर्फ़ वक्त जाया करना होगा l

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18 JUN AT 0:10

इक अग्नि परीक्षा
हर रोज़ आपका पीछा करेगी l

सही-गलत की परिभाषा
ये बस आपके नीयत पर निर्भर करेगी l

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31 MAY AT 19:09

रोज-रोज सोच कर ,
एक रोग दिल में धर लिया l

जिंदगी चली न कि,
रोग ने जकड़ लिया l

सामना हुआ नहीं ,
हाय प्रभात ढल गयी l

तोड़ कुछ मिला नहीं,
सुकून भी निगल गयी l

कारवा चलता रहा,
मुसीबतें छलती रही l

बेरूखी पनप-पनप,
नजदीकियां निगलती रही l

इक भोर के इन्तिज़ार में,
ज़िंदगी सदा फिसलती रही ll

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9 APR AT 8:33

दिल अगर भर गया हो गुलामी में
तो मिलना ख़ुद से किसी रोज़
हँसने की चाहत रखकर किसी चौराहे पर ..
किसी चाय की टपरी पर..
और खुद को आज़ाद परिंदे की तरह समेट लेना l

हमेशा के लिए नहीं सही !

कुछ वक़्त की दरकार समझकर
या मन की आवाज़ समझकर ..
ज़िंदगी ने मौक़े हज़ार दिए होंगे बेशक,
पर कोशिश करके मिलना ख़ुद से
बस एक बार ख़ुद को इंसान समझकर l

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9 MAR AT 9:18

शब्द खोखले हैं !
ग़र ज़ज्बात न ढो सके अपने कँधों पर l
क्यूँकि शब्दों की तो, पराकाष्ठा ही है,
जज़्बातों के उठ रहे उफान को समेटना l

जज़्बातों की टोकरी ,
तो सदा बहती रहती है,जहन रूपी नदी में l
और शब्द,महज़ इक ज़रिया ही तो है,
उस नदी को पार कर पाने का l

तो शब्द खोखले हैं !
ग़र किसी ख्याल,एहसास को प्रेषित न कर सके l
क्यूँकि अनकहे ज़ज्बात,
कंधों पर मानो असहनीय बोझ का आभास कराते हैं ll

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20 SEP 2024 AT 19:43

एक स्वप्न
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संसार की अनुभूति से परे
एक एहसास दिल में धरे
मैंने बस आलिंगन में लिया,
कुछ ज़िंदगी के स्वप्न हरे ll1ll

स्वप्न कि परिभाषा से परे
स्वयं उम्मीदों के रंग भरे
मैंने ख़ुद को यूँ तोड़ दिया,
मानो मिट्टी के कच्चे घड़े ll2ll

अभिलाषा कि महक भरे
ज़िंदगी को तर्ज़ करे
स्वप्न को काग़ज़ पर उकेर दिया,
जाने जैसे बिसरे गीत मेरे ll3ll

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9 SEP 2024 AT 21:59

ये दुनिया,
ये चांद,
ये रात,
सब-कुछ बदसूरत है
ग़र को, दिल खुश न हो !

न साहिल,
न महफ़िल,
न मंज़िल,
कुछ भी नहीं भाता दिल को !
ग़र ,दिल को सुकून न हो !

बड़े मिज़ाज बदल कर देखे मैंने!
कोई कसौटी पर न उतरा l

फ़िर खेले भी है,कई दाव ज़िंदगी पर ,
पर कोई घाव भरकर नहीं देता l

यूँ तो मर्ज मासूमियत ठहरी
जो ज़िंदगी समेट बैठे हैं!

वरना बे-सुकूनी की चादर! ज़रा,लम्बी ज़्यादा है !
जो ज़िंदगी की दीवार पर दीमक सी सजती है l

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30 AUG 2024 AT 15:54

मैंने चार कदम चलकर
ज़िंदगी को सहेजना चाहा !

सहेजने की ख़्वाहिश
शायद नागवार गुज़री ज़िंदगी को !

उसने लिखी मेरे हिस्से में
कुछ उदासियां ,तो कुछ खालीपन!

कुछेक दूर चलकर मैंने बटोरे
अपने हिस्से के कुछ किस्से और कहानियाँ l

फ़िर मैंने देखे थे जो ख्वाब ,
जिम्मा लिया ,उनको ताबीर करने का l

और ये तो फ़िर मेरी मासूमियत ही ठहरी
जिसने स्वयं मुझे जिम्मेदारियों में दफ़ना दिया ll

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7 AUG 2024 AT 16:04

बड़े दिन हुए,हमें शब्दों से खेले हुए l
यूँ जिंदगी के झमेलों से,अकेले हुए l
अब दिल लगने लगा है,जिम्मेदारियों में,
एक अरसा भी तो नहीं हुआ,सब-कुछ झेले हुए l

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6 JUL 2024 AT 10:56

ख़ामोशी का शोर
———————————
जब ज़माना शांत लगने लगे
दिल मुख़बिर बन !
तीक्ष्ण तरंग बजाने लगे
आत्मा रूदन गाने लगे
तो समझना !
ये शोर "ख़ामोशी" का है ।

ये शोर कहीं ज्यादा खतरनाक है
हवा में घुलती आवाजों से !
कभी नदामत का शोर
तो कभी शोर,दिल पर हुए सितम का
ये तलफ़ कर देती है
जिज्ञासू मन की हर शांति।

बेश्तर "इक ऐब" घोलती है,
शोर ख़ामोशियों में !
और गयफ़लत की फ़ज़ल से
ख़लिश जाती नहीं दिल से !
तब बेज़ारी मचाती है "शोर"
और अख़्तियार में रखती है
दिल की सारी ख़ामोशियाँ।।

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