हर साल की तरह, इठलाते, खरीदे दर्जनों धागे
पिरोया हर को प्यार, शुभकामनाओं और विश्वास के साथ
बनाया उन धागों को रक्षा का बंधन..
भेजा है, भाई, लिफ़ाफे में डाल तुम्हारे ही पास।
हर बार तो ख़ाली हो जाती थी ये थाली मेरी
ये कैसे रह गए दो इस बार..
हाय! ये क्यूं रह गए दो इस बार।
मन विचलित है, ढह रहा है
कैसे भेजूं भैया इनको तुम्हारे द्वार।
एक से ना पूछ पायी
उन तक रखी पहुंचने की ख़बर..
एक से ना सुन पायी -
"देता हूं अपना पता - ठिकाना, रुक ज़रा, रख सबर"।
कैसे ख़ुद को समझा दूं ये?
कैसे गिनती कर दूं इन धागों की कम?
हां, ज़िद्दी बहन हूं..
अब भी बांधूंगी हर साल राखी तुमको,
मन में.. क्योंकि
मुंह से बोले नहीं, मन से माने भाई थे तुम।
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