मैं घुल जाऊंगी, मिल जाऊंगी, मिट जाऊंगी
रंग जाऊंगी रंग में तुम्हारे
घुलना, मिलना, मिटना
खोना नहीं है स्वयं का
तुम...
तुम भी घुलोगे संग मेरे
अजीत, अमिट, अक्षुण्ण अस्तित्व
तुम और मैं घुलकर
होंगे एक रंग नया
रंग इश्क़ का-
सुनो ना!
अगर तुम साथ हो तो,
ये परेशानियों से भरा दौर भी गुजर जायेगा।
देखना अपना वक्त भी बदलेगा,
और जल्द ही सुकून भरा दौर भी आयेगा।।-
अपने सपने को हाथों से
रेत की तरह फिसलने से पहले
बांध सकती हूँ मुठ्ठी,
पर डर है खोने का उसे
जो अभी हकीकत है
और
जो हकीकत है
वो सपने से भी
ज्यादा कीमती है।-
एक निर्णय
जिस पर तुम्हारी और मेरी समझ अलग है
खुद को समझती हूँ,
खड़ी होती हूँ खुद के साथ
तो दिखते हैं मुझे
चेहरे पर आये तुम्हारे उदास भाव
इसलिए
तुम्हारी समझ के साथ खड़ी हूँ
क्योंकि
मुझे आता है छुपाना
अपने उदास भावों को
आता है मुझे
आँखों में ही बांधना
भीतर के सैलाब को
बाहर बने रह कर शांत
भीतर की उथल- पुथल को समेटना
क्योंकि आता है मुझे प्रेम करना।-
आप दोनों के चालीस वर्षों का सफर
आगे साथ साथ यूँही बढ़ता रहे
जीवन की संघर्षों भरी धूप में
आपकी ममता भरी छाँव का आँचल लहराता रहे
निस्वार्थ निश्च्छल प्रेम का वृक्ष
फलता फूलता विकसित होता रहे
बस यही मन्नत है रब से
आप दोनों के उम्र भर के साथ का जश्न
साल दर साल हम ऐसे ही मनाते रहे।
-
किसी ने कहा छोड़ दो उधड़े हुए रिश्तों को
मैंने कहा नहीं छोड़ना मुझे,
गर्माहट लाने के लिए फिर से उठाऊँगी फंदों को
और फ़िर से बुन लूंगी उन्हें।
किसी ने कहा त्याग दो शुष्क रेत से रिश्तों को
मैंने कहा नहीं त्यागना मुझे,
सूखी रेत पर प्रेम के छींटे मारकर
फिर से महका लूंगी उन्हें
किसी ने कहा काट दो मवाद भरे रिश्तों को
मैंने कहा नहीं काटना मुझे,
फोड़े से निकाल दूँगी भरी मवाद
फिर से भर दूँगी घाव।
करूँगी एक और अंतिम प्रयास
बिखरे मनकों को टूटी माला में
देखना फिर से पिरो ही लूंगी।-
ओ स्त्री! सुनो
सपनों को बांध लो कसकर
अपने जूड़े में,
कि बिखर ना पाए वो।
भर लो रंग इंद्रधनुषी उनमें
कि बेरंग एक भी सपना रह ना जाए।
क्यों रोका है अपने आप को तुमने
भरकर साहस अपने पंखों में तुम
भरो उड़ान अनंत गगन में
क्योंकि समक्ष तुम्हारे फैला है
क्षितिज असीम संभावनाओं का
कि गगन भी जमीं पर उतर आए।-
एक समय जब
सूरज की तरह तपते हैं संघर्षो में
असफलताएं निरंतर छाया की तरह करती है पीछा
एक समय जब
बहते हो शीतल पवन की तरह शांत
फिर भी सफलताएं खुद से ही शोर मचाती है
- तृप्ति-
पीड़ा जब उफान पर होती है
बहा ले जाती है अपने साथ प्रवाह में
मार्ग में आने वाले सभी अवरोधों को
और
पीड़ा जब होती है शांत
नीरव सी रिसती है
अंतर के कोने में कहीं।-
कही अनकही
सब रह गयी
सुनी सुनाई
सब सह गयी
हृदय लगाता अपनी करूण पुकार
वेदना थी कि मोम बन कर बह गयी।-