मैं, मैं हारने को तैयार हूं,
मैं हारने को तैयार हूं, हर बार,
मैं लड़ने को तैयार हूं, हर बार
हारने का कोई खौफ नहीं है, मैं निडर हूं हर बार,
जिल्लत का कोई गम नही हैं, मैं मजबूत हूं हर बार
अभिमन्यु सा यशश्वी हूं, चक्रव्यू के लिए तैयार हूं हर बार,
कोई कही से आ जाएं, दुरुस्त खड़ा हूं हर बार
देना ना मुझे कोई कोने की जमीन,
बीचों बीच, आमने सामने के लिए तैयार हूं हर बार
नही है कोई जो झूठ फरेब से सब जंग जीत ही लेगा,
कही पृथ्वीराज कही बाजीराव बना तैयार हूं हर बार
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साहब, ये हमारी पुरानी उलझने,
सुलझने का नाम नहीं लेती हैं,
और यहां हर मिलने वाला कहता है की,
कुछ नया सुनाओ,
अब कैसे करे हम खुद को इन सवालों के काबिल,
जो सुलझते है चंद पलों के लिए,
जिंदगी अपनी वजहें और शर्ते बदल लेती है
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क्यूं डरे की जिंदगी में क्या होगा
कुछ ना हुआ तो तजुर्बा तो होगा,
जो कहीं हार है, तो कहीं जीत भी होगा
जो कहीं शिकन है ठहरी तो मुसकुराना भी लिखा होगा,
कुछ ना हुआ तो न ही सही,
वक्त में मुकम्मल कोशिश का इत्मीनान तो होगा-
जिंदगी जब धूल से भरी हो,
तब आंखो के कचरे की क्यों फिक्र करना,
जिंदगी जब खुद ही सवाल बन गई हो,
तब जमाने की पहेलियों के जवाब क्यों बुझना
तुम्हारी असल खैरियत का तो कोई नहीं जानने वाला,
फिर इन पोशाक धारियों की बातों को दिल से भला क्यूं लगाना-
तन्हाइयों का अपनी, कभी हिसाब नही रखा,
नाकामयाबी पे अपनी, कभी कोई नकाब नही रखा,
मुश्किलों पे अपनी, कभी कोई रकबा नही रखा,
गर्दिशो पे अपनी, ना कभी सूरज ना कभी चांद को रखा,
जिंदादिली के जस्बे, और ईमान के कस्बे में,
होसलो की बुलंदी, और मेहनत की पूंजी में,
जो समझा, जो जाना, वो किया
अब जो किया, वो किया यारो,
फिर हमने अपने किए का कोई मलाल ना रखा
कोई और खुद से सवाल नही रखा
कोई और मलाल नहीं रखा...
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उलझने और उलफते ही हैं ज़िंदगी,
बाकी सब तो शून्य सा हैं,
अब शून्य पे बैठकर, शून्य को क्या निहारना
भॅवर में फसकर, ठहराव क्यूं तलाशना,
सैलाब से घिरकर, राहत क्यूं है सोचना,
गर्दीशो से लड़कर ही पार है पाना,
रोते हुए भी मुस्कुराना सीखना ही है, जिंदगी-
वक्त खराब हो तो,
मजाक भी गलती बन जाती है,
और जब वक्त तुम्हारा आए तो,
गलती भी लोगो के लिए मिसाल बन जाती है,
गलतियों से अपनी सीख ले लो तो,
आपकी गुमनामी भी मशहूरी से ज्यादा असरदार हो जाती हैं...
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कैसे हार जाऊ इन तकलीफों के आगे,
मेरी तरक्की की आस में, मेरी मां बैठी है,
मेरी मुश्किलों जरा समहलना, तुम्हारी गर्दिशे भी छुपी है कुछ आगे ही,
क्योंकि मेरी हिम्मत की नाव की, मल्हार मेरी मां ही बन बैठी है..
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शिखर तक पहुंचने के सफर में,
अक्सर हम तन्हा हो ही जाते है,
आती हैं ना जाने कितनी मुश्किलें
लगता जरूर है की हम थोड़ा हार भी जाते हैं,
मगर अंदर भरी हुई है जो भूख,
उस शिखर से अपने भूत से सीखकर, भविष्य को संवारने की,
अब इतने सब में
हम थोड़ा तन्हा तो हो ही जाते है ..
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कुछ तो बनायेगी ये ज़िंदगी
बड़े इम्तेहान जो ले रही है,
और वक्त तो लगता है सोने से कुंदन बनने में,
तभी तो हर दिन तपिश बढ़ रही मेरी..
अब जो कुछ होगा वो तो होगा ही,
इसलिए तो गिरा कर, सता कर, रुला कर,
फिर मुस्कुराने का मौका भी दे रही ज़िंदगी...-