एक थे हज़ार थे, शिकायतों के ग़ुबार थे
जो शिकायतों से घिरा रहा, गिले बेशुमार थे
वो मैं और तुम जो कभी हम ना हुआ
एक सफ़र जो कहीं ख़त्म ना हुआ
किनारों से लगे मुझे, जो सच में मझधार थे
.....जो शिकायतों से घिरा रहा, गिले बेशुमार थे
चला बादलों से ऊँचे अरमान लिए
उड़ता रहा आँखों में आसमान लिए
हवा ही थी परों में पर उसके भी तो भार थे
.....जो शिकायतों से घिरा रहा, गिले बेशुमार थे
अंधेरों से उजालों तक की आस में
कई रात बीती नूर की तलाश में
जो दिए जलाए जागकर वो सुबह बेकार थे
.....जो शिकायतों से घिरा रहा, गिले बेशुमार थे
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