एक बार बुरखे में से राजनीति निकाल दीजिए धार्मिक कट्टरता निकाल दीजिए सामाजिक प्रतिबंध निकाल दीजिए उसमे डाल दीजिए स्वाभिमान, साक्षरता, व्यवसाय और मानवता फिर देखिए क्या जिस्म पे अब भी बुरखा रहना चाहता है! यदि हां तो कपड़े पहनने में कैसा संकोच!
अपराधी, पैदा नहीं होता वो पनपता है, हमारे समाजों में उसे सह मिलती है, धर्मों की उस पर साया होता है, कुटुंबों का उसका बचाव करते हैं, परिवार वाले और उससे बचते फिरते हैं, कुछ मासूम जिनका, ना समाज होता है, ना कौम, ना कुटुंब, ना परिवार।
उससे दो टूक कर निशब्द कर दिया, अपने इरादों को रखा इतना ऊंचा कि उसके इरादों को तमाचा जड़ दिया, अपनी मुस्तैद नियत दिखा दी और उसके अहम को चूर चूर कर दिया ।।