दरअसल... कुछ पाने की चाह में हम इतना खो जाते हैं के हम ये नहीं देख पाते कि हमारे सामने क्या है...
और जब हम वो सब, जिसके पीछे हम भाग रहे थे (बंगला, गाड़ी, पैसे इत्यादि), पा लेते हैं...
तब हमें एहसास होता है के हम कितने अकेले हैं... कोई नहीं है हमारे पास जिसके साथ बैठ कर सुख दुख बांट सकें...
तब हमें एहसास होता है... हमने क्या खो दिया है...
तब हमें एहसास होता है...के जो कुछ खुशी खुशी जीवन बिताने के लिए पर्याप्त था...
जिसे बस हम दो कदम और बढ़ा कर पा सकते थे... उसे तो हम पीछे... बहुत पीछे छोड़ आए हैं...
अब हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते... अफ़सोस के सिवा...
ज़िंदगी में सबसे ज़रूरी होता है प्यार, परिवार, दोस्त... और वो सब लोग जो सुख दुख में हमारा साथ देते हैं...
मगर हम पैसा बंटोरने में इतना मशगूल हो जाते हैं के हम रिश्तों को भूल जाते है...
फिर एक दिन हमारे पास... पैसा, बंगला, गाड़ी सब कुछ तो होता है...
मगर साथ देने वाला कोई नहीं होता...
पैसा सुविधाएं तो दे सकता है... मगर एहसास नहीं...
पिज्जा की जगह रूखी सूखी रोटी खा कर पेट भरा जा सकता है...
मर्सिडीज की जगह अल्टो में घूमा जा सकता है...
बड़े बंगले की जगह छोटे से घर में रहा जा सकता है...
मगर अकेलेपन का ना कोई विकल्प होता है... ना ही कोई इलाज़...
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