वो आकर, मुझे छेड़कर, यू चला जाता है
ये हवा का झोंका भी न, कितना सताता है
उपवन की डाल पर ,मैं खिल खिलाती हूँ
भवरो संग, मैं भी गीत गाती हूँ ...
भिगो कर, यू मुझको, हंसी ठिठोली करता है
जल स्रोत बन, ये मेघ, कितना बरसाता है
देख उसे, जड़ ,मूल और मैं मुस्कुराती हूँ
छपा छप करती हुई, झूम जाती हूँ ....
कभी धुंध ,कभी ओस ,कभी मावठ आता है
ये शीत का माह तो बर्फ़ जमाता है
बिन आग की ताप के, मै ठिठुर जाती हूँ
गिनते हुए, तेरे जाने का हिसाब लगाती हूँ....
मुँह फुला कर उष्मा से ,यू भरकर आता है
ग्रीष्म में ,ये सूरज कितना चिढ़ता है
तेरे होने से जीवन है ,यह जानती हूँ
इसलिए प्रकृति तुझे शीश नवाती हूँ...
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