एक नज़र उसपर पड़ी क्या और बस फिर हो गया,
जिसके दिल में जो जो था चेहरे पे ज़ाहिर हो गया।
दिन था वो भी वो मेरी उँगली पकड़कर चलता था,
दिन है ये भी वो मेरे क़द के बराबर हो गया।
ख़ूब सर पत्थर पे पटका वास्ते एक शख़्स के,
और मैं इक रोज़ आख़िर ख़ुद ही पत्थर हो गया।
- तौसीफ़ बलरामपुरी-
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जो मेरे हाथ में होता तो मैं कुछ इस तरह करता,
कि नफ़रत तुझसे करता और फिर बे-इंतिहा करता।
न सिगरेट पी न मयख़ाने गया तुझसे बिछड़ने पर,
अगर मैं भी यही करता तो इसमें क्या नया करता।
- तौसीफ़ बलरामपुरी।-
काट दे बात मेरी यार वो ऐसा भी नहीं,
और फिर ठीक से आकर गले लगता भी नहीं।
जिसने ता-उम्र वफ़ा करने की खाई थी क़सम,
उसने जाते हुए मुड़कर मुझे देखा भी नहीं।
एक एहसास कि दिल जिससे रिहा हो पाए,
एक चेहरा जो मेरे ज़ेहन से जाता भी नहीं।
- तौसीफ़ बलरामपुरी-
तेरी हस्ती तेरा रुतबा तेरी पहचान ज़िंदाबाद,
दिल-ए-पुर-ज़ोर-ओ-चश्म-ए-तर से जिगर-ओ-जान ज़िंदाबाद।
मेरी साँसें मेरी धड़कन मेरे ख़ूँ का हर इक क़तरा,
तुझी पे हो फ़क़त क़ुर्बां ऐ हिंदुस्तान ज़िंदाबाद।
- तौसीफ़ बलरामपुरी-
दिल ये किस जुर्म में मुब्तिला हो गया,
सदियों पत्थर था जो देवता हो गया।
जैसे बारिश हो उजड़ी ज़मीं पे कोई,
तुझको महसूस करके हरा हो गया।
इश्क़ में सरहदें ना मुअय्यन करो,
मेरा महबूब मेरा ख़ुदा हो गया।
सिर्फ़ मैं ही नहीं मजनुओं में शुमार,
जिसने देखा तुझे वो तेरा हो गया।
तुझको देखूँगा, चाहूँगा, चूमूँगा भी,
मैंने सोंचा था क्या और क्या हो गया।
~तौसीफ़ बलरामपुरी-
सौ रात का ग़म मिलता है इक रात में,
जी इश्क़ के चक्कर में पड़ना, सोंचकर।
कुछ और है एन्डिंग मोहब्बत की यहाँ,
इस फ़िल्म का किरदार बनना, सोंचकर।
~तौसीफ़ बलरामपुरी।
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जिसका जितना लम्बा तार है,
समझो उतना ही बेकार है।
शख़्स है वो दो कौड़ी का पर,
उसका लहजा शानदार है।
घुँघरू बाँध रखे पैरों में,
फिर भी इज़्ज़तदार है ?
चेहरे पर ख़ामोशी है मेरे,
मेरे सीने में अंगार है।
वैसे तो तुम पत्थर निकले,
और मोम का कारोबार है।
~तौसीफ़ बलरामपुरी।-
सारी दुनिया में जा- जाकर यह ऐलान कहा जाए,
मेरी बुलंद आवाज़ को मेरी पहचान कहा जाए।
हिंदू,सिख,ईसाई,मुस्लिम की आख़िर तक़सीमें क्यूँ,
मेरी ख़्वाहिश है कि मुझको हिंदुस्तान कहा जाए।
~तौसीफ़ बलरामपुरी।
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कलाम मेरे ही गुनगुनाए जाएँगे,
कुछ इस तरह की शाइरी की है।
अभी दिल लगाया नहीं है तुमसे,
अभी तो सिर्फ दोस्ती की है।
कई अँधेरों को पार कर आया हूँ,
जुगनुओं ने मेरी रहबरी की है।
~तौसीफ़ बलरामपुरी-
उम्र भर मुसलसल यही सिलसिला रहा,
एक कमरे में बंद रहा और चींखता रहा।
करवटें बदलता,उठकर बैठता,टहलता कभी,
तमाम रात इसी तरह से मैं काटता रहा।
तुमसे बिछड़ा तो बाद तुम्हारे मत पूछो,
कौन अपना रहा किससे क्या राब्ता रहा।
~तौसीफ़ बलरामपुरी-