Taruna Chaurasiya   (ख़ामोश ज़ुबाँ)
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Joined 13 October 2018


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Joined 13 October 2018
1 OCT 2020 AT 22:12

(कलियुग का परिचय)
मैं कलियुग हूँ
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जब भाई, बहन को नोंचेगा,
जब पुत्र ही माँ को खाएगा,
जब पिता, पुत्री को रौंदेगा
और अंग-अंग को चबाएगा,
सुन लो ऐ धरती वालों, उस दिन
मेरा यौवन मुस्काएगा।
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~©तरुणा चौरसिया

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14 SEP 2020 AT 12:09

*हिन्दी दिवस विशेष*
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हिन्दी। यह मात्र एक भाषा नहीं है। यह भाव है दिल से दिल को जोड़ने का। यह संस्कृति है हमारे देश की। यह साधन है प्रत्येक छोटे-बड़े वर्ग के व्यक्ति के मध्य होने वाले संवाद का। यह वह माँ है, जिसकी लाज बचाने को असंख्य बेटों ने दे दी आहुति अपने प्राणों की। यह वह माँ है जिसकी गोद में खेलते हुए हम हुए हैं बड़े और जिसके हाथों को थामकर हम चलते हैं जीवन की डगर पर। यह वह दादी या नानी है जिनकी ज़ुबान से कहानियाँ सुनते हुए हम परियों के नगर से होते हुए नींद के गाँव तक पहुँच जाते थे। यह भाषा है हर उस ठेले वाले, दूध वाले, आइस क्रीम वाले या खट्टे-मीठे कम्पट बेचने वाले की जिसने हमारे दैनिक जीवन को आसान, रंगीन और चटपटा बनाने में थोड़ा-सा भी योगदान दिया है। यह भाषा है हिन्दुस्तान में रहने वाले हर उस नागरिक की जिसका जुड़ाव रहा है हिन्दुस्तान की मिट्टी से। हिन्दी हमारी नसों में बहता हुआ खून है। हिन्दी हमारी आन-बान-शान और अभिमान है।
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~©तरुणा चौरसिया

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22 AUG 2020 AT 11:27

गणेश चतुर्थी विशेष

तुम ही हो इस सृष्टि के कर्ताधर्ता,
विघ्न हरो जग के, हे विघ्नहर्ता!
तुम हो गजानन, तुम ही विनायक,
रिद्धि-सिद्धि दाता औ सुखदायक।

लम्बोदर तुम, देवा तुम ही गणेशा,
बन मार्गदर्शक संग चलना हमेशा।
शिव के दुलारे, तुम हो गौरी नंदन,
दुःख के पाषाणों का करो विखंडन।

तुम प्रथम-पूज्य, जग के पालक,
दुःखहर्ता हो, तुम कष्ट-निवारक।
मन में विराजित सदा मंगलमूर्ति,
मंगलकामनाओं की करना पूर्ति।

तुम्हारा है पर्व, घर आओ देवा,
पूरे हृदय से करें हम सब सेवा।
लड्डू-मोदक करेंगे तुम्हें अर्पण,
अंतिम दिवस पे करेंगे विसर्जन।

होके विसर्जित कहीं खो न जाना,
संकट की धारा में छोड़ न जाना।
हम भक्त तुम्हारे, तुमको पुकारें,
श्रद्धा-सुमन संग आरती उतारें।

~©तरुणा चौरसिया

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16 AUG 2020 AT 1:17

पुण्य तिथि विशेष

'अटल'

फ़ैसला हर एक अडिग था,
वृक्ष-सा मन भी अचल था।
काया थी फ़ौलाद औ निश्चय
पर्वत के जैसा अटल था।

आँखों में बसता था सूरज,
शब्द भी एक-एक प्रबल था।
भाव में था स्नेह अप्रतिम,
व्यक्तित्व जिसका सरल था।

जो था बड़ों-सा धीर और
बच्चों-सा चंचल-चपल था।
कोई भी दूजा न था वो,
वह व्यक्ति केवल 'अटल' था।
वह व्यक्ति केवल 'अटल' था।

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15 AUG 2020 AT 10:33

~©तरुणा चौरसिया

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3 AUG 2020 AT 12:37

आज का दिन सभी दिनों से तनिक पावन है,
पूरनमासी है, अंतिम दिन है, मास सावन है।
चहक रहा है घर बहन की खिलखिलाहट से,
कई दिनों के बाद हँसता-मुस्कुराता आँगन है।

बड़े प्रेम से चौक बनाती और पीसती चन्दन है,
थाल सजाये राखी बहना कहती, रक्षा बंधन है।
स्नेह भाव से बात करे है, मीठी उसकी बोली है,
बोला भाई, लड़ाकू बहना लागे कितनी भोली है!

तिलक-आरती कर भैया की, बहना राखी बाँधे है,
जल्दी से फिर हाथ बढ़ा, अपना उपहार वो माँगे है।
खट्टी-मीठी नोक-झोंक संग भैया ने उपहार दिया,
जीवन भर रक्षा के वादे संग बहना को प्यार दिया।

घर-घर में खुशहाली लाने वाला यह त्यौहार है,
भाई और बहन की खुशियों का ये ही आधार है।
रेशम के धागों से बना यह स्नेह का पावन बंधन है,
भाई-बहन के रिश्ते का त्यौहार यह रक्षा बंधन है।

~©तरुणा चौरसिया

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11 JUL 2020 AT 17:42

वैराग्य प्रेम का प्रथम चरण है।
किसी के असीम प्रेम और
अनंत काल तक रहने वाले
सान्निध्य की प्राप्ति के लिए
आवश्यक है आपका वैरागी होना।

(पूरी रचना अनुशीर्षक में पढ़ें)

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8 JUL 2020 AT 15:20

सावन
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इन्द्रधनुष का रंग कहीं,
कहीं बिखरी बूँदें पत्तों पर,
हुए लबालब सारे जल से,
सूखे हुए नदी-पोखर।

हुआ शुभारंभ इस प्रकार
सृष्टि के रूप मनभावन का।
आओ सब मिल झूमे-गाएँ,
मास आ गया सावन का।
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(पूरी कविता अनुशीर्षक में पढ़ें)

~©तरुणा चौरसिया

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4 JUL 2020 AT 16:45

प्रेम का गुरुत्वाकर्षण

प्रेम का भी अपना एक विशेष
बल होता है, जो बिल्कुल
पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल
की ही भाँति कार्य करता है।
जिस प्रकार
गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा
पृथ्वी प्रत्येक गिरती हुई
वस्तु को धारण कर लेती है
अपनी गोद में,
ठीक उसी प्रकार
जीवन के किसी न किसी मोड़ पर
सच्चा प्रेम खींच ही लाता है
आपसे विमुख हुए प्रेमी को
पुनः प्रेम की भुजाओं में
और करा देता है अनुभव
आपके शाश्वत और अटूट प्रेम का,
अपने विशेष
गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा।

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4 JUL 2020 AT 0:17

तुम जो आए, सूखे उपवन खिल गये,
खोए थे जो पहले, कंगन मिल गए।
तुम बिना था जेठ, एक-एक दिन मेरा,
तुम मिले क्या, हमको सावन मिल गए।

रूप से श्रृंगार था रूठा हुआ,
जैसे रूठी पेड़ों से हरियाली हो।
आधी-आधी साँस भी थी तुम बिना
मानो ये जीवन कोई अर्द्धाली हो।

साँसों को, तुम्हारी साँसों की महक,
रूप को श्रृंगार औ दर्पण मिल गए।
तुम बिना व्याकुल थे कब से नैन जो,
उनको अब तुम्हारे दर्शन मिल गए।

ओढ़नी के सारे रंग फीके-से थे
और न झंकार थी पायल में ही।
काँटे ही काँटे थे दिखते झोली में,
न कोई कलियाँ मेरे आँचल में थीं।

ओढ़नी को रंग, पायल को झनक
और हमें फूलों के दामन मिल गए।
मिलती है जैसे नदी सागर के संग,
वैसे ही हम-दोनों, साजन मिल गए।

~©तरुणा चौरसिया

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