मंज़िलों का भी
अजीब इख़्तिताम रहा।
जब मिली,
रास्ता हो गयी।-
ग़ुस्सा कम हो,
तो उदासी भर जाती है।
मन है,
खाली कनस्तर की तरह रखना है मुश्किल।-
सुना था
समय की धूप में सारी फसलें
सुनहरी हो जाती हैं।
माज़ी के बाग़ से कुछ लम्हें चुनकर लाया था।
चखकर देखा...
वैसे ही खट्टे-मीठे हैं ।
हर सिम्त मिठास वैसे ही टपक रही है।
गालों के गुलाबी रंग
अब भी तुम्हारे धुले नहीं हैं।
हल्का सा कसैलापन
दांतों में अब भी खुरँच रहा है।
चुप्पी तेरी जैसे अब भी चुभ रही है।
वक़्त
डीप फ्रीजर है कोई।-
एक जाती हुई रात में;
कई पहर की अधीरता होती है।
एक आधी अधूरी बात में
कई तर्क होते हैं।
काग़ज़ पर घिसी
सूखी कलम से निकले अपढ़ शब्दों में
महा वाक्य सन्निहित होता है।
मौन में गुम
खोए हुए
सारे तथ्य होते हैं।
किसी दिन
तुमको ये सब सौंप जाऊंगा
पूरा खाली होकर।-
वे पौधे - वृक्ष - तरू - पर्ण
जिनपर फूल नहीं खिलते
जिनपर फल नहीं लगते
वे भी तो
अस्तित्व की
किसी परिभाषा में समाहित हैं।
हरी दूब पर
ठहरी हुई ओस की बूंद
पीती हुई गिलहरी।-
कई-कई सूरतें हैं पिन्हा; ज़मीं पे लेटे हुए
बादल में जैसे हाथी-हिरण औ ताज़ उतरते हैं।
हलक़ में तब-तब उतरती है बादा-ओ-सबा,
इस पैमाने में जब-जब ख़्वाब उतरते हैं।
अव्वल ही मुलाक़ात में पूछा था वफ़ा का मतलब
जबकि ये माने ख़ुद जफ़ा-औ-सितम के बाद उतरते हैं।
उसके इन्तिज़ार में अबके एक बरस और गया!
वो; जो आने से पहले था, दर लम्स जाने के बाद उतरते हैं।-
चुप्पी चुप नहीं होती,
और शब्द भी
वाचाल नहीं होते।
वाचाल होते हैं
प्रश्नवाचक चिन्ह
जो वाक्यांत में आकर
इतना कुछ कह सुना जाते हैं
कि जवाब का धैर्य रह जाता है।
उसके बाद की ख़ामोशी
बहुत चीखती है।
फिर सारी व्यवस्था अजनबी हो जाती है-
शोर में एक लंबी शांति होती है
और एकांत में अज़ीब-सा शोर...-
कुछ दिनों से,
कई पहर तक
मैं लिखने को बैठा रहा...
तुमको -
तुम्हारे ग़म, तुम्हारे सवालों के ज़वाब,
तुम्हारे रूठने पर मनाने की कवायतें।
शाम ढली और रात गुजरी;
सुबह ने धक्का देकर
फिर उसी व्यस्त जीवन राह पर ला खड़ा किया
और उस थकान में
शामें ढलती रही, रातें गुजरती रही।
अब तुम्हारे ग़म से ज्यादा,
तुमको न लिख सकने का मलाल है।-
अब
जब कि तुम हो,
लगता है
कुछ और ढूँढ रखूँ
जो जीवन में नहीं है।
कि
अब तक
तुम्हारे नहीं होने की आदत
गयी नहीं है,
कि अक्सर तुम्हारे ही पहलू में
तुम्हारा ही इन्तिज़ार किया करता हूँ।-