चलो रे ना-ख़ुदा, मुझको समंदर पार जाना है
जहाँ पर दूसरी लहरों, फ़िज़ाओं का ठिकाना है
कि लहरें चूमती जिसको, हवाएँ गुदगुदाती थीं
वहाँ दश्तों का है डेरा, फ़क़त साहिल बेगाना है
न बुझ पाई मेरी ये प्यास बस एक बूँद भर पीकर
वो बारिश है अग़र, तो क्यों मेरा ख़ाली पैमाना है
दिलों की बात होती थी मगर बिकती है चमड़ी अब
ज़माना वो भी था कल तक, नया अब ये ज़माना है
लबों पे ला न पाए बात वो जो चुप थी सदियों से
मैं तुमसे प्यार करता हूँ सिरफ इतना बताना है
न तन्हाई, न बेचैनी, तेरा बस साथ हो केवल
सनम मुझको फ़लक पर इक जहां ऐसा बसाना है // अनुशीर्षक पढ़ें-
ख़ुशी की फ़क़त इक ख़बर ढूँढ़ते हैं
दुआओं में अपनी कसर ढूँढ़ते हैं
जिधर देखो हैं सिर्फ वीरान राहें
वो राहों में अपनी बसर ढूँढ़ते हैं
कहाँ जायें छोटे, वो मासूम बच्चे
ठहरने को जो इक शज़र ढूँढ़ते हैं
परेशान हैं वो दवा लिखने वाले
दवाओं में अपनी असर ढूँढ़ते हैं
ख़ुदा हैं जो खुद दूसरों की नज़र में
दवा में ख़ुदा की नज़र ढूँढ़ते हैं
करें क्या भला और क्या ना करें वो
जो खाखी पहनकर सहर ढूँढ़ते हैं
सभी दूर होकर सभी एकजुट हैं
जहां में नई इक दहर ढूँढ़ते हैं
रहे ढूँढ़ते जो चमत्कार "बदनाम"
वो पानी में जैसे शरर ढूँढ़ते हैं-
बात को किसी, मैं इतना सहल नहीं लिखता
गैर खंडहर प' मैं अपना महल नहीं लिखता
बोलते रहें, जो भी बोलते रहे हैं वो
मैं मग़र कलम से अपनी नकल नहीं लिखता
शे'र- शायरी की तहज़ीब गर समझ लेते
फ़िर ग़ज़ल में, मैं उनको यूँ दख़ल नहीं लिखता
तीरगी मिली है जब- जब मुझे नसीबों से
रोशनी लिखी मैंने, मैं दहल नहीं लिखता
ज़िन्दगी अग़र देती फूल जेब से अपनी
तो मैं आज पत्थर पर यूँ फसल नहीं लिखता
शौक के लिए लिखता हूँ, मैं जो भी लिखता हूँ
'वाह- वाह' की ख़ातिर मैं ग़ज़ल नहीं लिखता
लिख दिया तख़ल्लुस "बदनाम" अब क़लम ने यूँ
और मैं 'उदित' होकर भी अज़ल नहीं लिखता-
कोई 'रेखा' और कोई 'कैटरीना' बन गयी
फ़ोन पर तो आज हर लड़की हसीना बन गयी
जीते-जी मरकर भी जो 'शीरीं' न बन पाई यहाँ
बूँद आँसू की बहा इक, कोई 'लैला' बन गयी
दिल हथेली पे सजाकर ढूँढती है प्रिंस को
औ' लगाकर मेकअप कोई 'सिंड्रेला' बन गयी
बेवफाई में तवायफ़ हो चली कोई कहीं
जिस्म को केवल दिखाकर कोई 'शीला' बन गयी
नाचते गाते गई मर, बज़्म में महबूब की
और इक-दो गीत गाकर कोई 'मीरा' बन गयी
क्या ज़माना आ गया "बदनाम" अब मैं क्या कहूँ
फेसबुक पर नाम लिख कोई 'सिज़ूका' बन गयी-
चाँद को चाँद मैंने दिखलाया
चाँद को देख, चाँद शर्माया
कहते हैं लोग चाँदनी जिसको
चाँदनी वो महज़ तेरा साया
बाद ने ज़ुल्फ़ को तेरी छेड़ा
और इस बात से मैं तिलमिलाया
बुझ गया जो चराग़ आंधी में
वो तेरी छाँव में ही जल पाया
इक दफ़ा जो छुआ तुम्हें मैंने
फ़िर कई दिन ये हाथ कपकपाया
नर्म मेरी भी ज़िन्दगी होती
ओढ़नी की अग़र होती छाया
देख ज़ालिम कि क्या हुई हालत
धूप में जल गई मेरी काया
तुम हो प्याला शराब का जानम
औ' मेरे हाथ खाली जाम आया
थी मुझे चाँद पाने की हसरत
और जुगनू भी ना पकड़ पाया
हो गया नाम यूँ मेरा "बदनाम"
जब सरेआम दिल से दिल लगाया-
इक रात जब नूर-ए-ज़लामी सो रहा होगा
इक रात जब बादल मुसलसल रो रहा होगा
क़तरा-ए-बाराँ तीर की मानिंद बरसेगा
ये ज़ख्म खाकर जिस्म नीला पड़ गया होगा
उसने मुसीबत मोल ली है अब्र-ए-तीरा से
ज़रख़ेज़ की ख़ातिर, सोचो क्या-क्या सहा होगा
ये सोचता हूँ मैं फक़त इक शे'र की ख़ातिर
बरसात ने जामुन से ऐसा क्या कहा होगा-
'बाबू-शोना' रूठ जाए, शोक होना चाहिए
बात जब माँ-बाप की हो, 'जोक' होना चाहिए
ख़ौफ तो रखते हो तुम अपने सनम का इस क़दर
बाप का थोड़ा तुम्हें तो ख़ौफ होना चाहिए
माँग लें वो फ़ोन जाने कब तुम्हारा, और फ़िर
फ़ोन में कुछ हो या ना हो, 'लॉक' होना चाहिए
रह रहे हो तुम जहाँ, वो घर तुम्हारे बाप का
और दरवाज़ा तुम्हारा 'नॉक' होना चाहिए?
इश्क़ लिखने के सिवा भी, हम बहुत कुछ लिखते हैं
आपको पढ़ने का थोड़ा शौक होना चाहिए
लिखते-लिखते लिख गई है, लो ग़ज़ल तैयार है
लिखने का "बदनाम", ऐसा रौब होना चाहिए-
न खंजर न आरी न तलवार से
न बंदूक-गोली की बौछार से
क़यामत तो वो कुछ यूँ बरसाती है
फ़क़त अंग-ओ-अंदाम की धार से
चलो! ख़ैरियत, चश्म पे चश्मा है
नहीं, मर जाते नज़रों के वार से
झुका ले नज़र मह्र भी, वो चमक
छुपी है जो सुरमा-ए-अबसार से
वो जल्वा-ए-साग़र-ओ-मीना ही क्या
जो बिखरा नहीं उनके दीदार से
तबस्सुम-ए-जानां पे हारे हैं हम
है मक़तूल-दिल एक अदवार से
-Udit //शेष अनुशीर्षक में-
वो चाँदनी बिखरी रही
वो रागिनी मैली रही
दो पुष्प की वो कोपलें
मदहोश सी लिपटीं रहीं
मधु होंठ से रिसता रहा
आँखें, सनम कहती रहीं
लबरेज़ था ये जिस्म भी
इक धार जो बहती रही
फिर से बदन की आग में
वो 'आह' भी सिकती रही
वो रात भी बेदार थी
जो कल तलक सोती रही
हैरान था महताब भी
फ़ानूस जब जलती रही-