खोज जारी है, खुद अपनी जहाँ में
कोई वजह नहीं मिलती, कोई पता नहीं मिलता..
है कहाँ छुपा हुआ, बनाकर के वो बशर
वो जगह नहीं मिलती, वो ख़ुदा नहीं मिलता...!
✍️🍁-
दरख़्त का कोई अपना नहीं होता
जो होता है करीब उसके, छाया मिल ही जाती है
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रिसते रहे कलम से मेरी कुछ घाव मेरे
लोग कहते रहे अच्छे हैं अल्फ़ाज़ मेरे
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थोड़ा तो सब्र रखते, रखते काबू में भूख,
गर्म दूध से मुंह जला, छाज को पीते फूंक।
यूं बेसब्री में बोल दिए, हो गई भारी चूक,
विपदा ऐसी आन पड़ी, चाटो अपना थूक।
घने पेड़ की डाल पर, कोयल रही थी कूक,
आतुर मानुष काटा जो, बगिया हो गई मूक।।
✍️😇-
ज़िंदगी यूँ न अपनी ज़ाया करो
देखो गर ख़्वाब भूल जाया करो
तुमसे किसने कहा भुला दो मुझे
है गुज़ारिश न याद आया करो
कैसे होगा यकीं तुम्हारा हूँ
थोड़ा तुम भी मुझे सताया करो
कोई अपना रहा नहीं मेरा
अब चलो तुम मुझे पराया करो
लौटना मेरा जब नहीं मुमकिन
यूँ न देके सदा बुलाया करो
वक़्त बेवक़्त फट पड़े वो कहीं
बात दिल में नहीं दबाया करो
रब कि मर्ज़ी बनाया इंसां भी
तुम नहीं पर ख़ुदा बनाया करो
दिल जिगर की, नहीं है बनती 'असर'
रोज़ मुझको नहीं पिलाया करो
Hitendra_Asar-
सूखे पत्ते झड़ जाते हैं, दरख़्त नहीं
रस्ते शहर के मुड़ जाते हैं, वक़्त नहीं
हो दूर कहीं कितना भी, लहू पुकारेगा
दाग धूल के मिट जाते हैं, रक्त नहीं
समय देखकर झुकना सीखो, तभी टिकोगे
लचीले अक्सर बच जाते हैं, सख्त नहीं
असर कहीं कुछ कहना हो तो, पहले परखो
झूठ बोल कर पछताओगे, सच नहीं-
कभी तो मन नहीं लगता, कभी मुश्किल नहीं लगता
ग़ज़ल का काम है ऐसा, कहीं फिर दिल नहीं लगता
कभी करने को कर लेता हूँ कुछ मिसरे अगर पूरे
न जब तक ज़िक्र हो उसका, कोई कामिल नहीं लगता
नहीं हमक़ाफ़िया कोई कहीं जंगल क़वाफ़ी में
मुझे मिलता है वो रस्ता, जो फिर मंज़िल नहीं लगता
समुंदर बंदिशों का है, मुझे उस पार जाना है
सहारा जो भी मिलता है, वो ही साहिल नहीं लगता
मैं उससे जुड़ तो जाता हूँ ख़यालों में कभी अपने
मगर जो लफ्ज़ मिलता है, वो ही वासिल नहीं लगता
मैं कोशिश तो बहुत करता हूँ उसको पाने की हरदम
कभी वो मिल भी जाता है, मगर हासिल नहीं लगता
हाँ होने को तो हो सकता है वो कुछ भी मगर देखो
मिरा क़ातिल भी होकर वो, मुझे क़ातिल नहीं लगता
सुख़न को पढ़ने सुनने का उसे तो शौक़ है पर क्या
कभी लिख पायेगा उसको, 'असर' काबिल नहीं लगता
Hitendra_Asar-
इल्म उसको नहीं, के वो क्या ले गया
हर किसी की दुआ, बद-दुआ ले गया
सब का बचपन, जवानी, मज़ा ले गया
वक़्त सैलाब सा सब बहा ले गया
क्या ख़ता थी मेरी कुछ पता तो करो
क्यों भँवर में मुझे ना-ख़ुदा ले गया
हाँ ख़फ़ा हूँ ख़ुदा से मैं सच में बहुत
क्यों ख़ुदा को ही मेरे उठा ले गया
साँप डसते रहे आस्तीं के मगर
थी मुहब्बत मुझे मैं निभा ले गया
था क़ुसूर-ए-हवा जो वो चिलमन उड़ी
इक झलक में वो मेरी वफ़ा ले गया
कोई छोटा बड़ा दोस्ती में नहीं
शेर को चूहा ही तो बचा ले गया
रिंद होना ही था मेरी इक ना चली
दोस्त जो भी मिला मय-कदा ले गया
हर सहर मय-कदे से की तौबा 'असर'
दिल मगर शाम को फिर मना ले गया
Hitendra_Asar-
चुरा ली उम्र मिरी ज़िंदगी से शातिर ने
समय बहुत ही बड़ा जेबकतरा लगता है-