कुछ अपरिहार्य कारणों से भारी मन से विदा चाहूँगा🙏
अभी पढ़ने और लिखने की स्थिति में नहीं हूँ।
भगवान की दया से 3-4 महीने में सब ठीक कर, आप लोगों से मिलता हूँ।
(Comments को off कर रहा हूँ, account खुला रखूँगा -- अगर ये forum न भी रहा तो भी आप सबको ज़रूर ढूंढ लूँगा🌸)
आप सबको असीम स्नेह🌹
नाकाम सर को सादर प्रणाम🙏-
ज़िन्दगी बख़्शी जिन्हें वोही कज़ा देने लगे
हम वफ़ा करते रहे, और वो दग़ा देने लगे
था पता की वो डसेंगे, आदतन मजबूर हैं
आस्तीनों में उन्हें हम आसरा देने लगे
जो ज़रा बेटे ने पूछा हाल कैसा आपका
बस दुआ दिल खोल के माता पिता देने लगे
जो मुसल्सल बद-दु'आ के बदले हमने दी दुआ
बेवफ़ा थे जो कभी वो भी वफ़ा देने लगे
हो ख़ुदा का कोई तो पैकर जहाँ में इसलिए
बस ख़ुदा इंसान को माता पिता देने लगे
मयकदे के साक़ी को हमने बनाया चारागर
है मज़ा अब हर दवा में वो नशा देने लगे
ग़म-ज़दों के ही लिए था बस खुला साक़ी का दर
ग़म मेरे अब तो मुझे सच में मज़ा देने लगे
फूटकर जो रो रहे थे खुद हमारे हिज्र में
दिल सँभाले कैसे हम वो मशवरा देने लगे
हम मुहब्बत की ग़ज़ल में जो ज़रा अटके 'असर'
वो झुकी नज़रों से अपनी क़ाफ़िया देने लगे
Hitendra_Asar-
कोई अपना हमें जब लूटता है
बड़ा ख़ामोश ये दिल टूटता है
जिसे चाहो हक़ीक़त में बदलना
वही सपना ही अक्सर टूटता है
अजब दस्तूर है के हमसफ़र ही
कहीं रस्ते में पीछे छूटता है
कोई ना बच सका मूसल से इसके
समय सबको बराबर कूटता है
कभी लगता है रेगिस्तान हूँ मैं
कभी आँखों से झरना फूटता है
सभी कहते हैं पत्थर दिल बड़ा हूँ
मेरा शीशे सा दिल ये टूटता है
लगी हो प्यास जब सबसे ज़ियादा
तभी हाथों से प्याला छूटता है
'असर' करलो छुपाकर पाप जितने
घड़ा इक दिन तो भर के फूटता है
Hitendra_Asar-
क्यूँ मैं पैदा हुआ, याद कुछ ना रहा
ये हुई क्यों सज़ा, याद कुछ ना रहा
हमसफ़र भी था मैं, रास्ता भी था मैं
मंज़िलों का पता, याद कुछ ना रहा
बात ईमान की, खूब मैंने पढ़ी
काम खुद का पड़ा, याद कुछ ना रहा
मेरा क़ातिल ही मुंसिफ़ मिला जब मुझे
क्या गुनह था मिरा, याद कुछ ना रहा
रो दिया वो मुझे दे सज़ा मौत की
क्या मैं करता गिला, याद कुछ ना रहा
था गुमाँ ये मुझे, मैं न भूलूंगा कुछ
आ गई जब कज़ा, याद कुछ ना रहा
कल से तौबा करूँगा थी खाई कसम
शाम साक़ी मिला, याद कुछ ना रहा
रात गुज़री कहाँ, उसने पूछा 'असर'
था कोई मयकदा, याद कुछ ना रहा
Hitendra_Asar-
हों जवाँ जब, समझ नहीं आता
सब्र मतलब, समझ नहीं आता
तजरबे उम्र से ही मिलते हैं
ये मगर तब, समझ नहीं आता
अजनबी जाने कौन है उसमें
आइना अब समझ नहीं आता
कोई रहबर पता बताए मुझे
है कहाँ रब समझ नहीं आता
क्यूँ लकीरों में तुम नहीं हो मेरी
रोता हूँ जब समझ नहीं आता
कैसे कह दूँ बिछड़ गया तुमसे
तुम मिलीं कब, समझ नहीं आता
दूर रहने से इश्क़ बढ़ता है
मुझको साहब, समझ नहीं आता
ग़म ग़लत शाम को जो करता हूँ
क्यूँ ख़फ़ा सब समझ नहीं आता
जो कभी पीने बैठ जाऊं 'असर'
उठना है कब समझ नहीं आता
Hitendra_Asar-
जो कोई हमने लगाई याचिका ख़ारिज हुई
बेगुनाही की हमारी हर सदा ख़ारिज हुई
साँस अटकी ही रही, मुंसिफ़ के तेवर देखकर
जब ज़रा वो मुस्कुराए, तब हवा ख़ारिज हुई
इश्क़ जो हमने किया वो जुर्म साबित हो गया
क़त्ल की उन पर लगी जो भी दफ़ा ख़ारिज हुई
आस हमको थी मिलेगी इश्क़ में अब उम्र कैद
था कोई नाराज़ मुंसिफ़ जो सज़ा ख़ारिज हुई
अब न मज़हब पर सियासत कोई भी पार्टी करे
क्यों हमारी इतनी सी ये इल्तिजा ख़ारिज हुई
हो जहाँ संसद से बेहतर चर्चा माँगी थी सलाह
मयकदा हमने कहा, तो क्यों भला ख़ारिज हुई
चारागर हैरान था, क्यों ठीक हम ना हो रहे
क्या दवा करती 'असर' जब हर दुआ ख़ारिज हुई
Hitendra_Asar-
दीमक लगी थी नींव में खाती रही कहीं
खादी की जेब में ही तो ख़ाकी रही कहीं
मज़लूम की फ़ुग़ाँ का भी अंजाम ये हुआ
गाहे-ब-गाहे न्यूज़ में गाती रही कहीं
खुश था मुहल्ला, बच्चे सभी हो गए जवाँ
सूनी गली में छाई उदासी रही कहीं
जब तक रहा घिरा रहा, इक तीरगी से मैं
तुर्बत पे मेरी शाम कुहासी रही कहीं
इक मयकदा जो बंद हुआ फ़र्क़ क्या पड़ा
बस इक अधूरी नज़्म ही प्यासी रही कहीं
बेचैन दिल ही करता यहाँ शे'र-ओ-शायरी
माज़ी की याद मुझसे कराती रही कहीं
अचरज रहा के होश में कैसे मिला 'असर'
क्या मैकदों में मय नहीं बाकी रही कहीं
Hitendra_Asar-
मौत को सोच कर हँसा हूँ मैं
ज़िन्दगी, सच में मसख़रा हूँ मैं
उम्र भर ढोये खून के रिश्ते
तुम न मानो मगर गधा हूँ मैं
सांसे देकर चुकाई है कीमत
मुश्किलों से रिहा हुआ हूँ मैं
शाख़ से बस अभी अभी टूटा
थोड़ी देर और बस हरा हूँ मैं
उड़ चलूँगा हवा के साथ कहीं
अब किसी से नहीं बँधा हूँ मैं
भूलना तुझको चाहता ही नहीं
खुद ही खुद के लिए सज़ा हूँ मैं
मेरी तुर्बत पे लग रहे मेले
मर गया पर नहीं मरा हूँ मैं
थी रिहाइश 'असर' की मुझ में कभी
था मकाँ, अब तो मक़बरा हूँ मैं
Hitendra_Asar-
है नहीं दोनों में जुदा कुछ भी
तू करे पूजा या दुआ कुछ भी
दोनों जाएंगी दर तलक उसके
है जो फिर राम या ख़ुदा कुछ भी
ऐ ख़ुदा किसने हक़ दिया तुझको
इन लकीरों में लिख दिया कुछ भी
जो लिखा था, दिया वही इसने
ज़िन्दगी से नहीं गिला कुछ भी
ज़ह्र, पानी, शराब या आँसू
आज तू हमको दे पिला कुछ भी
हैंगओवर ज़रूर होता है
हो मुहब्बत या फिर नशा कुछ भी
राज़ खुल ही गया फ़ना हो कर
खुला किस पर, नहीं पता कुछ भी
चंद साँसें मिलीं थी मिट्टी को
"असर" इसके सिवा न था कुछ भी
Hitendra_Sharma
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