तुम्हारी कहानी-ए-इश्क़ कैसे पूरी होती ऐ क़ातिल
बददुआ किताब में दम घुटे गुलाब की थी।-
मुफ़लिसी है आजकल रहबर की
हर रास्ते ने खुदको धोखेबाज़ बना रखा है
मेरे अपने हो तो पढ़ सकते हो मुझे
मैंने चेहरे को उर्दू का अखबार बना रखा है
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मैं काला कलंक तू मुझपे सफेद दाग सा
मैं बादल गलत तू आसमां पाक सा
मेरी कमियाँ हज़ार तू शिक्षक लाजवाब सा
जुदा जुदा से हम पर अलग हुए तो सब खाक सा-
नहीं होती रखवाली,
जंग लगा ताला अब बेजान है
घर तो नहीं है,
बस यादो का एक मकान है-
इजाज़त ना थी जिसे पराये नर से दो बात की
आज दहेज में उसे बिस्तर मिला है।-
घूँघट के पर्दे से दबी
घर के बर्तनों की आवाज़
अंदर के खराब मौसम पर
गुलाबी होंठों की हँसती भाप
ये भाप कभी हटती नहीं
ना किसी मौसम,
कपड़े,
ना नीर से
दुनिया बेखबर
एक और कश्मीर से।-
इस दफा जो बोली तो कह दूँगी सब
मत ले इम्तहान मजबूरी की हद का
चाहत की आड़ में छिपा रखी है तेरी बेवफ़ाई
इज्जतदार ही बना रह,जब तक न टूटे बाँध मेरे सब्र का
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अपनो से दगा कहाँ पाक होता है
शाख से अलग पत्ता खाक होता है-
मैं सरल लिखना चाहती हूं
ताकि सब समझ सकें
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सब समझते हैं
मैं सरल हूं-
तुम अब मुझे भाते नही हो
यार, तुम भुलाए भी जाते नही हो
नए रिश्तों में बड़े मसरूफ़ हो
सुना है अब ज्यादा मुस्कुराते नही हो
होंठों पे हँसी, आँखों पे काले घेरे हैं
लगता है रात-रात भर सो पाते नही हो
इस तरह रहे तो जल्द ख़त्म हो जाओगे
इश्क़ भुला दो अगर जी पाते नही हो
यूं बेचैन कब तक खुद को सताओगे
लिख डालो जो कुछ भी कह पाते नही हो।-