तेरे इंतज़ार में आँख अक़्सर ही पसीज जाती है,
आस्तीन मेरी इन्हीं को पौंछते हुए भीग जाती है।
तुम बेशक भूल गई हो, मुझे हमेशा याद रहेगा,
ये नज़रअंदाज करना, किससे तू सीख जाती है।
मुझसे, मेरे ख़्वाब-ओ-ख़्याल से राब्ता तो नहीं
फिर क्यों अनायास मेरी उदासी में दीख जाती है।
घर सूना है, दीवारें ढ़हने लगी हैं, दरीचे गायब है
कभी-कभी सर्द ऋतु में छवि तेरी नीक जाती है।
मोहब्बत भी अजीब खेल है, हर क़दम शह देती,
तयशुदा लगे हार, आख़िरी चाल में जीत जाती है।
लोगों का क्या है, उनका काम ही है इल्ज़ाम देना,
मुसलसल बहती आँख भी एकदिन रीत जाती है।
ख़ुद की लहद खोदते, ख़ुद को दफ़न करना है,
मौत के इंतज़ार में गिर कफ़न की भीत जाती है।
तेरे-मेरे दरमियान जो रिश्ता, इसे कोई नाम न दे,
उलझे रिश्तों की गुच्छी,मन में भर ख़ीज जाती है।
ज़रा से और करीब आ जाओ,कुछ गर्माहट मिले,
'शौक़' तेरे साथ से सर्द रातों में भाग शीत जाती है।-
लोगों का तो, काम है कहना
तुम ही हो मेरे दिल का गहना
बहुत जीया बीच की दूरी को
और नहीं मुमकिन इसे सहना
तुमबिन कौन है मेरा यहाँ पर
एकपल तुझसे दूर नहीं रहना
अंजान तो नहीं मेरी वेदना से
कैसे थामोगी अश्रु का बहना
भूल जाओ सोच की मोच को
प्यार किया है, प्यार ही करना-
तुम जादूगरनी सी, लफ्ज़ मिलन के खेलते-खेलते,
मेरे हिस्से में विरह लिखकर, दिल मेरे से खेल गई।
बारिशे-शाद माँगी थी,तुम ख़ज़ाना यादों का दे गई,
बरसात-ए-कुर्बत के बजाए, मुझमें अश्क़ पेल गई।
प्रचुर पाने की ललक में,साथ से भी वंचित कर गई,
जो कुछ भी था मेरे पास,वो भेंट स्वरूप समेट गई।
पींग इश्क़ की लड़ाते-लड़ाते, पतंगे-साँस काट गई
वादा ताज़िंदगी साथ का कर, धोखेबाज़ी लपेट गई।
लाखों कली की कुर्बानी से गुले-उल्फ़त खिला था,
मौसमे-नौ-बहार में, मौसम-ए-हिज्र की दे जेल गई।
जन्मों की परस्तिश-ओ-इबादत,फिर अधूरी रह गई,
तमन्ना-ए-दीदार दफ़न कर, रक़ीब से कर मेल गई।
मालूम ही न पड़ा,मेरी महबूब कब बेवफ़ाई बो गई,
'शौक़' के सपनों पर,लफ़्ज़ की वाचाल चल रेल गई।-
रिश्तों की मुट्ठी, सहेजकर रखती ख़ुशी के पल,
मगर जब रिश्ते फंस जाएँ, लगने लगते दलदल।
जैसे तुम न आते, वैसे ही नहीं आते तेरे ख़्वाब,
नींद आने से पहले शब, सहर में बदल जाती है।
संवेदना और सचेतना से बाँधकर रखी जो मुट्ठी,
खुलते ही रिश्तों की रेत मुट्ठी से फिसल जाती है।
अहंकार और निजत्व को नाम पर छलते हैं रिश्ते,
फ़ासलों में तन्हाई ही, दिल पर बना बढ़त जाती है।
जैसे कंगाली में आटा गीला, रिश्ते भी रहे फिसल,
बाँध कर रखना रिश्तों को, हयात बहल जाती है।
कोशिश जारी रखना तुम, मिटे न रिश्ते की मर्यादा,
स्नेह और प्यार से बोई, रिश्तों की फसल जाती है।-
रिश्तों की पुख़्ता थी जो दीवार भरभराकर गिर रही है
लगता है बिना नींव की कच्ची भीत गहरे दरक रही है
रिश्तों की ये भीगी डोर सायाश हाथ से फिसल रही है
मर्यादा के बंधन जो खोखले हुए साँस खिसक रही है
रिश्ते फ़िक्रमंद नहीं, इनकी परवाह करते हैं जो बशर
पल-पल ज़मीर की जो उगाई थी फ़सल उजड़ रही है
कोई जीए, या तन्हा मर जाए तिल-तिल, किसे फ़िक्र
परवाह करने वाली शख़्सियत बंदिश से मुकर रही है
फलते-फूलते रिश्तों की सरसाई से सब अमीर थे कभी,
स्वार्थ रक़म करते-करते ज़मीर में भर ये अकड़ रही है
किसे परवाह मेरे वजूद की, घायल है या अधूरा हुआ
सुखानुभूति अब रिश्तों से तसलसुल हो बेनज़र रही है
तुम बेपरवाह मुझसे यही बात मुझमें तड़प भर रही है
फ़िक्रमंद रिश्तों की जड़ स्वार्थसिद्धि से उखड़ रही है
मेरे हर अहसास में अब भी तेरा फ़िक्र, तेरा जिक्र रानी
'शौक़' तेरी फ़िराक़ में रफ़ाक़त पल-पल निखर रही है-
यार के ख़्वाब नज़रान होते हैं सिर्फ़ नींद आने के बाद
अपनों की क़ीमत का अहसास होता है खोने के बाद
अपनों से फ़ासला कमतर करने की कोशिश में रहना
वर्ना तुम उम्र भर पछताओगे उनके चले जाने के बाद
जिनकी हिदायतों को नज़रअंदाज किया दख़ल समझ
गहराई की पैमाइश कर पाए ख़ुद ठोकर खाने के बाद
दुआओं का हिस्सा रखते हैं वो,जिनसे तू बेपरवाह रहा
लौटना नामुमकिन है ज़िंदगी के सफ़र में खोने के बाद
गलतफ़हमियों का निवारण करना,गुज़रते वक़्त के साथ
वर्ना लकीर ही पीटते रह जाओगे, साँप के जाने के बाद
गुज़रे लोग और वक़्त कभी हाथ में आते नहीं हैं दोबारा
ज़रा सी राहत मिल जाती है, उनकी याद में रोने के बाद
हर समस्या का समाधान निकल आता, संवाद के बाद
निखर जाता है सारा आलम, बरसात में भीगने के बाद
निशान-ए-पा भी दिखते नहीं, मरने के बाद कौन आया
किसी की तरफ मुड़कर नहीं देखा, तेरे चले जाने के बाद-
तुझसे बात करते रहने से, ये दूरी अखरती नहीं
मगर दिन की गर्म बाहों में, सर्द रात गुज़रती नहीं-
मुझे भी हमसफ़र चाहिए पर केवल वही चाहिए
ज़िंदगी के बाद भी जो हर सफ़र में साथ निभाए।
यूँ तो देखे हैं लाखों हंसीन मैंने भी, तुमने भी तो,
ऐसा एक भी नहीं देखा जो हर साँस साथ निभाए।
लोग मिलते हैं एक रात को, जुदा हो जाते सहर में,
कोई ना मिला जो बालम सा संवर हर रात निभाए।
वचन देने वाले बहुत, बदन जीम बदल जाते सब
मेरे नुक्स बता, ताज़िंदगी बनकर मिराज़ निभाए।
हर गली, हर नुक्कड़ पर एक ही चेहरा दिखता है,
हर चेहरे में दिखे वही,बेनज़र सा अधिराज निभाए।
चाहतें उबाल खाती, मन बदलाव का आलिंगन करे,
फ़र्दा का वादा तो सब करें,कोई मिले आज निभाए।-
रानी तुम बिन जग सारा सूना लगने लगा है
आफ़ताब जमने लगा है, महताब जलने लगा है
सावन सूखा बीत रहा, अश्क़ भी रीत गए हैं
सुहाना मंज़र आसमान का रंग बदलने लगा है
चाँदनी की शीतलता से बुझती नहीं आतिश मेरी
जीने का अरमां बेमौसम जुदाई से मरने लगा है
उस पहली सी मोहब्बत की तेरी तलब न रही
क्या कोई और बाहों से तेरा बदन चूमने लगा है
गुज़र जाता था जो बादल बिन बरसे कभी
जेठ की दुपहरी में बरस घाव मेरे भरने लगा है
जो कारण था अकारण मेरे हृदय की पीड़ा का
शुक्र है वो ग़ैरों की वेदना बिनकहे हरने लगा है
बहुत बंदिश लगाई मन के अड़ियल घोड़े पर
आज़ादी के नाम पर प्यार से क्यों डरने लगा है-
तेरी ही ख़ूबसूरती के क़सीदे में,क़ातिब रचते जमाल तेरा,
ज्यूँ चाँदनी का पहरा,बदन इकहरा ये बेमिसाल हुस्न तेरा।
ख़ूबसूरती तो नज़ारे देखने वाली, तेरी निगाहों में बसी है,
साधारण सी लौंडिया आके मेरे दिलो-दिमाग में छपी है।
हर बशर ने चारूता,सिर्फ़ अपनी पसंदानुसार से कसी है,
दिव्यता क्या, शिल्पकार की पसंद बन, छवि में छपी है।
वो पैमाइश करते रह गए, मुमताज का हुस्न-ओ-जमाल,
मुमताज ताजमहल में नहीं, शाहजहाँ के दिल में ढ़ली है।
गुल की लावण्यता इंसां से नहीं,अलि या तितली से पूछ,
किसतरह कली के खिलने की ललक,पलक तले पली है।
चाँद दागदार होकर भी, मंजुलता का अनूठा पर्याय हो गया,
आफ़ताब सी सुरम्य माशूका देखते, मैं तेरे आगोश सो गया।
तेरी बोली की मधुरता,हर लेती है मेरी रूह की सोज़े-उल्फ़त,
रुख़सार की दैवीय सादगी से, रमणीय किरदार तेरा हो गया।
शक्ल-ओ-सूरत में क्या रखा है,ज़ीनत तेरी सीरत सा हो गया,
लबालब के शिल्प से, क़सम से मोहक सारा ज़माना हो गया।
तेरी मोहक भाव-भंगिमा कौन बखाने, क़ासिद तेरा हो गया,
किस रम्यता से देखा तूने, 'शौक़' मंत्रमुग्ध होकर तेरा हो गया।-