AK Kaushik   (अल्फ़ाज़जोलिखेतेरीयादमें)
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Joined 11 February 2020


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AN HOUR AGO

दीपावली की रात में जगमग जला जो दीप
तन्हाई भेद कर चला नन्हा जला जो दीप

अंधेरा ध्वस्त होता एकल ही जला जो दीप
साम्राज्य रोशनी का बढ़ेगा जला जो दीप

आहट क़दम तेरे की उजाले से कम नहीं
सिहरन बढ़ी मिलन की अभी एक जला जो दीप

एक दीप काफ़ी है चित्त समाविष्ट हो जो ज्ञान
देते अजान रोज, भागा तम जला जो दीप

हर जीव का है भाग अलग रब से हो जुदा
दिल की धरा भी गुल सी खिली है जला जो दीप

प्रारूप धन का शान्ति कभी सोचना आँख मूँद
हर 'शौक' को बिसार दिया मन जला जो दीप

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20 HOURS AGO

वो इश्क़ पाक़ है जिसमें अश्क़ की फ़रियाद हो
सहरा में भी याद की बहती नदिया शादाब हो

बस्ती बसा लेते कुछ लोग बेलाग मोहब्बत की
दुआ है हर किसी का दिल महबूब से आबाद हो

किस्मत में तू नहीं शायद, फिर इंतज़ार क्यों है
दिल का फ़िगार पंछी क़ैद-ओ-बंद आज़ाद हो

फ़ैसला तुमने सुना ही दिया जब अलहदगी का
क्यों मनचली तमन्ना-ए-वस्ल का असबाब हो

टूटते सय्यारा से की है फ़रियाद एकपल मिलें
तुम ही फ़लक की तुम ही जमीं की महताब हो

तेरी दुआ फलित हो रही पुरनम हो चली आँखें
'शौक़' में शाहबाद बना जो एक दिन बर्बाद हो

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YESTERDAY AT 14:25

जो भी कमाया था वो दिया खो पाने के बाद
फ़रियाद हर पूरी हुई तेरे जाने के बाद

बेमक़सदी जो हो ज़िंदगी जीना है क्या
गुलज़ार हो गई कली बन गुल जाने के बाद

लुत्फ़-ए-क़याम पाया है तेरे आने के बाद
कामिल हो गए नज़र ख़ुदा से मिल जाने के बाद

बेपरवाही से ज़िंदगी बर्बाद कर ली है
मक़सद से गए भटक राह में खो जाने के बाद

चलते रहे जहाँ चाह ले कर जाती रही
सोचा नहीं जीने का खो मंज़िल जाने के बाद

चाहत नहीं रही यूँ तो दामन फैलाने की
ज़ीस्त दे बिन माँगे गई जाँ जाने के बाद

ताउम्र साथ-साथ बिताने का/वादा था
घुसपैठ कर रही याद तेरे जाने के बाद

इससे जियादा क्या कहूँ तुम सिर्फ़ मेरी हो
अब 'शौक़' पूर्व सा नहीं तेरे जाने के बाद

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18 OCT AT 22:02

मैं वो ख़्याल हूँ जिसे तुझे छूने की इजाज़त नहीं
मुझसे से ही उद्गम होकर की मेरी हिफाज़त नहीं

नूर-ए-मुजस्सम समझ कर की ही क्यों इबादत है
कर पाया जेहन से मेरी आँखों की तिलावत नहीं

बेज़ा हरक़त बंद कर इब्लीस की पहली औलाद
बिना संभोग के आती रुख़सार पे खिलावट नहीं

इश्क़ के गुलशन में बयार भी आती है बेरोकटोक
आज़ाद मेरी आरजू से जुस्तजू से, तू इसारत नहीं

तुझे चाहा है, दिल दे चुके जाँ भी दे देंगे इकदिन
नज़ाकत है इतनी कमसिन बाकी अदावत नहीं

ये सादगी, ये शर्मिंदगी हया की पैरहन बनी लगती
मासूमियत पर अच्छी लगे बनावटी सजावट नहीं

निख़ालिस मोहब्बत अब क़िताबों में महफ़ूज है
'शौक़' जो किया उसमें रखी तनिक मिलावट नहीं

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18 OCT AT 21:37

रूदाद मेरे फ़साने का सुन फ़लक भी रोया है
ये सुर्ख गुलाब शबनम में लिपट सहर में सोया है

हुस्न-ए-बेवफ़ा की चर्चा दिल्ली के तख़्त हुई है
हयात-ए-जावेदाँ तलाशते चैन-ओ-करार खोया है

इन आँखों की ख़ुमारी का चश्मदीद थी तुम भी
रक़ीब की बाहों तुमने ही तो रक़्स को बोया है

इश्क़ में आबाद है ये जमीन, जन्नत तो नहीं है
ज़िस्म के वस्ल-ए-विसाल को रूह ने संजोया है

आजमाइश माँगती ज़ीस्त, सबूत वफ़ा का है
'शौक़' ने मौत जीत, हारे-इश्क़ का दाग धोया है

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18 OCT AT 21:20

माना कि हम यार नहीं, तेरे बोसे के हक़दार नहीं
जितना मरते थे तुम पर, उतने रहे तलबगार नहीं

इज़हार को बपोती समझ बढ़े, किया इक़रार नहीं
जाँवेदा समझा था जिस हुस्न को, उसमें शरार नहीं

इख़्तियार अब दिल की तहों दरमियान काबिज है
धड़कन साथ छोड़ चली, करे साँस का इंतज़ार नहीं

बची कोई इम्कान नहीं, कि है रही मुलाक़ात बाकी
गर्दिश में अय्याम, रहमते-अय्याश की बहार नहीं

ग़म-ए-दौराँ ने पुख़्ता कर दी फ़ासलों की दीवारें
सितम देकर इब्लीस कह गई करती प्यार नहीं

छूकर जब आती है बाद-ए-सबा गमक उठे मन
सहरा के नख़लिस्तान में शजर-ए-सायादार नहीं

दम तोड़ गया ऐतबार, बेवफ़ाई की रंगत देखकर
बेपरवाह हुस्न कुर्बत-ए-लम्स का करे करार नहीं

तिलिस्म मोहब्बत का सोज़े-गम का आशियाना
'शौक़' से विदा किया, बेवफ़ा के कोई पार नहीं

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18 OCT AT 14:18

जाना न मुझ से दूर मनाज़िर में छोड़ कर
है कौन मेरा जग से जाऊँ आज छोड़ कर

अधिकार धुकधुकी का नहीं क्या करें जी कर
थम साँस जाए तब जाना है ताज छोड़कर

आवारगी ने तेरी क्या ही गुल खिलाए हैं
गुलशन उजड़ गया है एकल नाज़ छोड़कर

इंकार तेरा बैरी बना मेरी जान का
मौसम-ए-हिज़्र बीत गया दाग छोड़कर

मुस्कान होंठों की देखी आँखों की लाली नहीं
हर जख़्म को तराश दग़ाबाज छोड़कर

अच्छा नहीं ये फ़ासला जो बीच/में बढ़ा
किस 'शौक़' चले अश्क़ मुलाक़ात छोड़कर

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17 OCT AT 17:41

फिर काश और स्यात में उलझी है ज़िंदगी
शायद समय मौक़ा दे तो करनी है बंदगी

ताज़ीर प्यार की है तो इक उम्र भोगनी
दिल के चराग को जला हटती है रिंदगी

टकराव से नहीं साथ उल्फ़त में जीना है
परस्तिश से तेरी बढ़ मेरी जाती है तिश्नगी

आनंद की सीमा पार हो जाती तुझे पाके
दो लब मिला जवानी हो जाती है संकरी

इस जाँ-फिशानी में खो दिया इश्क़ 'शौक़' से
आफ़त को दे धता मुझे मिलती है नन्दनी

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17 OCT AT 17:39

फिर काश और स्यात में उलझी है ज़िंदगी
शायद समय मौक़ा दे तो करनी है बंदगी

ताज़ीर प्यार की है तो इक उम्र भोगनी
दिल के चराग को जला हटती है रिंदगी

टकराव से नहीं साथ उल्फ़त में जीना है
परस्तिश से तेरी बढ़ मेरी जाती है तिश्नगी

आनंद की सीमा पार हो जाती तुझे पाके
दो लब मिला जवानी हो जाती है संकरी

इस जाँ-फिशानी में खो दिया इश्क़ 'शौक़' से
आफ़त को दे धता मुझे मिलती है नन्दनी

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16 OCT AT 21:41

जब हादसा गुज़र गया आघात रह गया
दिल का गुबार कम न हुआ बाद बह गई

तेरा दिया ख़ुशी का वो पल याद रह गया
सब कुछ तुम्हें देने के बाद फरियाद रह गई

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