तेरी ही ख़ूबसूरती के क़सीदे में,क़ातिब रचते जमाल तेरा,
ज्यूँ चाँदनी का पहरा,बदन इकहरा ये बेमिसाल हुस्न तेरा।
ख़ूबसूरती तो नज़ारे देखने वाली, तेरी निगाहों में बसी है,
साधारण सी लौंडिया आके मेरे दिलो-दिमाग में छपी है।
हर बशर ने चारूता,सिर्फ़ अपनी पसंदानुसार से कसी है,
दिव्यता क्या, शिल्पकार की पसंद बन, छवि में छपी है।
वो पैमाइश करते रह गए, मुमताज का हुस्न-ओ-जमाल,
मुमताज ताजमहल में नहीं, शाहजहाँ के दिल में ढ़ली है।
गुल की लावण्यता इंसां से नहीं,अलि या तितली से पूछ,
किसतरह कली के खिलने की ललक,पलक तले पली है।
चाँद दागदार होकर भी, मंजुलता का अनूठा पर्याय हो गया,
आफ़ताब सी सुरम्य माशूका देखते, मैं तेरे आगोश सो गया।
तेरी बोली की मधुरता,हर लेती है मेरी रूह की सोज़े-उल्फ़त,
रुख़सार की दैवीय सादगी से, रमणीय किरदार तेरा हो गया।
शक्ल-ओ-सूरत में क्या रखा है,ज़ीनत तेरी सीरत सा हो गया,
लबालब के शिल्प से, क़सम से मोहक सारा ज़माना हो गया।
तेरी मोहक भाव-भंगिमा कौन बखाने, क़ासिद तेरा हो गया,
किस रम्यता से देखा तूने, 'शौक़' मंत्रमुग्ध होकर तेरा हो गया।
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