लम्हा-लम्हा मैं मरता रहा जाने कब मिट गई अपनाइयत
अब हाल ये है उल्फ़त तो मिली नहीं मिट गई सुकूनियत
मेरी स्नेहिल आजा जख़्म की एकल नहीं होती आराइश
सताईश नक्षत्र-परिक्रमा पश्चात पाई तुझ सी शख़्सियत
वाकपटुता से तेरी ओर खिंचते चले गए, दिल तुझे दे बैठे
कब ये सोचा था उठेंगी पच्छ ग़ज़ल में ही होगी अदबीयत
इमरोज़ मित्र दिवस, चुभे नाराज़गी शूल सी दिल अपार
कल तुम होगी ना मैं, हमारी उल्फ़त की रहेगी अबदीयत
सातिशय प्रेम जो तुमने दिया,सुगम होगी यात्रा मौत बाद
बाद मौत भी, चंदन सी महकेगी, इश्क़ की लाज़वालीयत
जान, बिछुड़े युग गुज़रे एक आवाज़ का मोहताज़ 'शौक़'
दोस्ती और मोहब्बत तो माँगती नहीं मन की सहूलियत-
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दोस्ती का ये पाक़ जज़्बा तब तक बरकरार रहे
जब तक ज़िस्म में लगता साँसों का बाज़ार रहे
ग़म भी बाँटेंगे, ख़ुशियों की भी लगायेंगे कतार
मेरी जान दोस्ती की आजन्म सजती बहार रहे-
मेरी स्नेहिल, अर्से से तुझे देखा न ही कोई बात हुई
पहले कई फेरे लगाती थी, ऐंठन क्या इस रात हुई
पता नहीं तेरी यादों मे गुज़र है भी मेरी या भूल गई
सबसे मिलती होगी, मेरे दिल में तो याद संघात हुई
तेरा आना द्योतक था तेरे दिल में बची मोहब्बत का
जाने क्यों रिफ़ाक़त, मैत्री,उन्स बिसार तू अज्ञात हुई
तुझे पढ़ कर अंदाजा लगता क्या है तेरे दिल पिन्हा
बंदिश लगी इतनी रोज़ ही जज़्बात की बरसात हुई
कब से इंतज़ार करूँ तेरे आने का कोई साहिल नहीं
कैसी दोस्ती ओ प्यार तेरा, यार से क्यों जुल्मात हुई
अब भी तड़पती निशीथ, तेरे मुलायम अभिसार को
तू ही मेरी उल्फ़त की निपात बन, शरीके-हयात हुई
मेरी दोस्त, मेरी स्नेही तू ही मेरा प्यार, मेरी दुनिया है
तू दूरी में न विचर तन्हा,मेरी बाहें ही तेरी निशात हुई
कब तक प्रतीक्षा करूँ,या चला जाऊँ,कोई इशारा दे
'शौक़' अब सहन न हो ये दर्दे-जुदाई आके सहारा दे-
2212 2212 2212 2212
बरसात बुझती आग को फिर से हवा ही दे गई
ये बद्दुआ कैसी तिरी तन को जला दिल ले गई-
तेरे आने की आस में कितना साँसों को तंग करूँ
अर्थी सजी, कितनी देर तक आँखें खोल-बंद करूँ
खुली भी रख नहीं सकता उनमें तेरा अक़्स जो है
छोड़कर चल दिए दर-ओ-बाम तुझे कैसे अंग करूँ
भीग जाती हैं पलकें जब तुम रूठके चली जाती हो
बता हिज़्र को किस तरकीब मैं बहार का रंग करूँ
हर बाब खोला तेरे लिए ताकि मेरा प्यार पढ़ सके
मेरा समर्पण, मेरी इबादत, वादा भी अब भंग करूँ
तुझबिन जीना नही, जुदाई का ज़हर ये पीना नहीं
'शौक़' में इंतज़ार लिखने वाले,तोसे कैसे जंग करूँ-
शायद भटक गया हूँ मैं तन्हाई की वेदना सहते
सुकून के लिए कुछ दिन इबादत करनी होगी
किसी के लिए बेकसी का कारण न बनाए रब
करीब आए अजनबी की हिफाज़त करनी होगी
शायद ज्यादा ही खुलके लिखने लगा हूँ मैं
अल्फ़ाज़ में तारी चुहल, नज़ाकत करनी होगी
कुछ दिन आराम करना मुफीद रहेगा अब
बंद मुझे हर ख़त-ओ-किताबत करनी होगी
हर कोई मोहब्बत के लिए आए जरूरी नहीं
'शौक़' को ख़ुद से रूबरू हक़ीक़त करनी होगी-
साँस सी हिफाज़त की, तेरा दूर जाना खला है
तेरे जाने से आगाज, इबादत का सिलसिला है
तेरी-मेरी रवानी तो फ़ानी जहान बुलबुले सी है
जो एक बार चला गया कब आ दुबारा मिला है
मेरी औक़ात ही क्या है ऐ हुस्न-परी तेरे सामने
मगर तेरी बद्दुआ से शारदा का आशीष फला है
लाखों हैं तेरे चाहने वाले, जान मेरी तू जड़ा है
इस बंजर हृदय में कोई फूल-ए-कमल खिला है
दिल पे खाई क्या कोई चोट जो मुखर हुआ दर्द
ख़ुद में तन्हा बरसा जो मुद्दतों मुझसे ख़फ़ा है
यूँ ही ना मिली हो तुम बड़े नसीबों से मिली हो
'शौक़' से तुम खुलकर ना मिली यही गिला है-
कैसे लौटा दूँ वो बीते ख़ुशगवार लम्हे
जो कभी तेरी अमानत थे बिखर गए
हवा का एक हल्का सा झौंका ही था
वक़्त की फटक से कौन किधर गए
तुम मिले भी तो कई जन्मों बाद मिले
तब मिले जब अहसास हो सिफर गए
तुम से बिछुड़ हर लम्हा युग हो गया
युगों बाद मिल ख़ल्वत कर नज़र गए
मन तो करे कोई बात-फ़रियाद न करे
'शौक़' के स्नेह को कर तुम बेअसर गए-
बाजुओं से तुझे रिहाई ना देंगे साँसों के बिखरने तक
तेरा साथ हरगिज न छोड़ेंगे तपकर कुंदन बनने तक-
जान, मेरा दिल उस पहली रोएंदार पुलकती मुलाक़ात की गिरफ़्त में है
जान, थाम लो मुझे, मुझे मोहब्बत में तरतीब देना तेरी लचकती सिफ़्त में है
तेरी पलक की अंगड़ाई का आलम पे कहर लिखने की कुव्वत नहीं मुझमें
बहुत लम्स पाया मगर नाजनीन असल ज़ायका तो पाया तेरी कुर्बत में है
(मुक्कमल रचना अनुशीर्षक की लचीली शाख़ की गिरफ़्त में है)-