समाज को आईना दिखाती है वो कहानियाँ,
जो कभी टूट कर लिखी गयी है इस समाज के आगे।-
रवि वीरोदय
पंक के सहस्र दल
पंकज का मानो
भाग्योदय....
क्रम से बहुप्रतीक्षित भी
मनुज प्रमाद वश
खोता जा रहा है
पुरूष से भेंट का अवसर,,
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पंकज ने मानो साक्षात्
आह्नान किया.......
मिला निराकार से
प्रतिदिन पूज्य पर्व महोत्सव
संध्या विदाई बेला में
आरति....
अतिशय पुण्य बडभागी
अहोभाग्य!
पंक के पंकज का
और.....जो है निद्रा देवी
के प्रति दर्शन में मूर्छित,,,
दुर्भाग्य के अंकों से अंकित,,
धन्य...धन्य...हो!!मनु!!
(*पुरुष-आत्म तत्व)-
खो गए है कहीं मौसमों के रंग ,
न जाने किस ओर हवा का रुख है।
साँसे चल रही है फिर भी,
ये दिल का वरक़ इतना तो सादा नहीं है।-
अब हमें खुद से मोहब्बत होने लगी है,
जब से तुम्हारी मोहब्बत खोने लगी है।
हम खुद अपनी पहचान बनाने लगे हैं,
जबसे तुम्हारी पहचान को खोने लगे हैं।
अबतक दिल ने धड़कना छोड़ा नहीं है,
हवाओं ने भी अपना रूख़ मोड़ा नहीं है।
नामौजूदगी तेरी मुनासिब लगने लगी है,
खुश तो नहीं पर,खुश हम रहने लगे हैं।
बस तेरे हिस्से का अन्धेरा सहने लगे हैं,
अपने जख्मों को छिपाकर हंसने लगे हैं।
मुश्किल तो था तुझे तुझ तक वापस करना,
नामुमकिन ही सही,पर खुद से हम जीने लगे हैं।
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जंगल में अब तो शहर बसने लगे हैं,
शुक्र है कि जंगल को शहर में नहीं बसना।
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ख़ामोशी मेरे दिल के कोने में दफ़न हुई,
क़फ़स में कैद शायद ख़ुशियाँ मना रही है।-
मोहब्बत हो ही गई हमें,
इनकार करते करते।
दिल तोड़ भी लिया हमने,
इज़हार करते करते।
दाग़-ए-मोहब्बत से छिप न सके।-
मुझे तुमने महोब्बत करना सिखा दिया,
मैं तुम्हें निभाना सिखा न सकी।-