वो तो हर किसी से बस यूँ ही मिलती है
मग़र हमसे वो अपनी खुशी से मिलती है
हक़ीक़त में मिलना चाहते है हम उससे मग़र
वो तो सपना है सिर्फ़ सपने में ही मिलती है
उसे पता ही नहीं हम दीवाने हैं उसके कब से
शक्ल भी उसकी किसी परी-रू से मिलती है
घर के आइनों पर लिखा है तेरा नाम जब से
तब से मम्मी भी मुझसे खुशी से गले मिलती है
उसके सामने फ़ीक़ी पड़ जाए चाँदनी चाँद की भी
दिल-ए-मुज़्तर को तस्कीन उसे देखने से मिलती है
उसके नाज़ उठाने को कब से बैठे हैं हम इधर क़ैस
"निर्भय" देखो कब ये जिम्मेदारी हमें मिलती है-
कतरा-ए-इश्क़ को कब तक मेरी ये रूह दयार को तरसे
जले मन तेरा भी किसी छुअन को तू भी करार को तरसे
तेरे दुख में तेरे सुख में मैनें हर पल तेरा साथ निभाया
तूने जो सिला दिया तू भी मेरे ही ए'तिबार को तरसे
तुझसे नाता तुझसे रिश्ता काहे मन समझ ना पाया
तेरी बेवफ़ाई पर हंसे सभी तू भी प्यार को तरसे
पल भर में बिख़र सी जाएँ सारी ख़ुशियाँ जमाल पे तेरे
टूटे हुए शीशे की तरह तू भी अपने निखार को तरसे
दिल की गहराई से दुआ देता है "निर्भय" तुझे ये पैहम
कि तू भी हर-नफ़स किसी और के शमीम-ए-यार को तरसे-
देख माँ ख़ुद को मैं हटा भी न पाया
दुनिया के दलदल से बचा भी न पाया
ग़म दबा के कब तक रखूँ अपने दिल में
रुला के तुझको माँ हसा भी न पाया
चाहता तो था मैं तुझे सब बता दूँ
लग गले सारे ग़म भुला भी न पाया
तेरी आँखों में आँसू आ देख कर माँ
चैंन से ख़ुद को मैं सुला भी न पाया
माँ दिखाना पूरा जहाँ चाहता था
माफ़ करना माँ मैं दिखा भी न पाया
इक लिखा था ख़त बस तुझे और तुझको
मैं बिठा के तुझको सुना भी न पाया
उसकी आँखों में देख के लगता मुझको
फ़र्क़ माँ को "निर्भय" करा भी न पाया-
वो तूने जो दर्द दिया अब भी निहाँ सीने में
तू याद जो आई अब तो भुला दूँगा पीने में
तू है किसी और का अब हम याद ना आयेगें
आया याद तो भुला देगें एक दो महीने में
उसको हर क़दम पे बचाया गया गिरने से मगर
कोई इम्काँ नहीं हुआ उस दिल के आबगीने में
फंसे हैं बीच में और जुबाँ पर नाम उसका
ना पहुँचे कोई आग लग जाने दो सफ़ीने में
दौर-ए-हाज़िर में मुझ सा नहीं मिलेगा कोई
परी-रू फ़र्क़ होता है कंकर और नगीने में
दुख सीने में जिस ताक़त-ए-ईज़ा ने भरे हैं
अब कोई बशर आता ही नही इस मदीने में
देखा ज़िस्म पर उसके किसी और का पैराहन
"निर्भय" कुछ आग सी लग रही है मिरे सीने में-
जब रोते हैं तब आ कर हम को हँसाती है
प्यार की भाषा कब हमें समझ आती है
भूल कर सारी तकलीफ़ परेशानियों को
होंठों पर हल्की सी मुस्कान दे जाती है
उस माँ या औरत की परीक्षाएँ भी देखे तो
वो कहाँ हमसे इस का परिणाम माँगती है
जब घर से बाहर जाती है इंतिज़ार होता है
मैं कहीं जाऊँ तो मुझे बैठा के समझाती है
जिस घर में देवी समान कोई औरत होती है
"निर्भय" उस घर में कब परेशानी आती है-
चश्म-ए-क़ातिल अँखड़ियाँ को देख पागल प्यार में
अब सुनो तुम करता हूँ तारीफ़ मैं विस्तार में
ये नज़र अब हुस्न पर रुक जाए भी तो फ़र्क़ क्या
दम-ब-दम पुर-अम्र लगता उस की ही गुफ़्तार में
गाल की जानिब ही झुकती हैं परी-रू की लटें
वो मिली उस रात दीवाली के ही त्योहार में
ये तबस्सुम देखकर बेदार सा हो जाता हूँ
इसलिए माँगा तबस्सुम हमनें भी उपहार में
देखकर रुख़सार को तेरे यकीं आया हमें
तू ही है माँगा ख़ुदा से हमनें जो दरबार में
वस्ल की इक इक घड़ी तक को तरसता था मैं भी
फूल भी अब खिल चुके हैं दिल के राह-ए-ख़ार में
चेहरा-ए-ज़ेबा की मैं तारीफ़ में क्या ही लिखूँ
पारसा कहता है "निर्भय" उस को ही अश'आर में-
बन गए हम कहानी बन कर रह गए फ़साना उसका
इस रह-ए-हयात में काम ना आया घराना उसका
सैलाब-ए-अश्क-ओ-आह लिए अब किधर जाएँ
रास ना आया हमें कभी गोशा-ए-मय-ख़ाना उसका
जब तक कुंज-ए-ज़िंदाँ में थे आफ़ियत चाहते रहे
अहल-ए-तरब निकला गर्दिश-ए-पैमाना उसका
रोज़-ए-हिसाब में भी याद है मुझे वो निगह-ए-लुत्फ़
मुझे देख कर फ़िर शर्मा कर पलकें झुकाना उसका
क्या क्या ज़ुल्म-ओ-सितम ढाए गए हम पे क़ैस
ज़िस्म पर हर निशान का वारिस ताज़ियाना उसका
कितनी रातों तक हम-बिस्तर हुए थे वो हमारे संग
"निर्भय" क्यूँ किसी के लिए तज़ईन-ए-ख़ाना उसका-
उससे बहुत दूर जा रहा हूँ मैं
शाय़द उसको भुला पा रहा हूँ मैं
खुद को आईने में देख कर मुस्करा रहा हूँ मैं
ऐसा कौन सा गम है जो खुद से छुपा रहा हूँ मैं...
ऐ दिल तू यूँ ज़िद न कर उसके शहर जाने की
टूट जायेगा तू फिर से समझा रहा हूँ मैं_
क्यूँ आज इस क़दर हिचकियाँ आ रही हैं मुझे
क्या सच में आज उसको याद आ रहा हूँ मैं ?
सुनो तुम यूँ इश्क़ न करना वरना बर्बाद हो जाओगे
मेरा ये खुद का तजुर्बा है जो तुमको बता रहा हूँ मैं
और इसे कोई गज़ल न समझ लेना मेरे प्यारे दोस्त
ये मेरा अपना ग़म है जो तुमको सुना रहा हूँ मैं ।।-
इस दौर-ए-हाज़िर में तुझसे मिलके वज्ह-ए-दवाम क्या होगा
सब हो चुका रह-ए-हयात में तो तर्ज़-ए-तकल्लुम क्या होगा
जब से देखा है बे-हिस रू-ए-सफ़ा तिरा निगह-ए-लुत्फ़ से मैंने
इस रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया में मुझसे बड़ा ख़य्याम क्या होगा
जब वो शफ़्फ़ाफ़ में निकलती है सँवर के ऐवान से बाहर क़ैस
उसे एक नज़र देखने के गर्दिश में शोर-ए-तलातुम क्या होगा
उसके डगर की ख़िज़ाँ को बहार कर दूँ चमन गुलज़ार कर दूँ मैं
उस हसीना के लिए फ़िरदौस में इससे बड़ा इन'आम क्या होगा
मैं ख़ुद अपने गुनाहों की ख़ुदी ख़ुदा के सामने तफ़तीश करता हूँ
मैं नहीं जानता किसी परी-रू से इश्क़ का अंजाम क्या होगा
अगर गुज़रुँ उसके घर के सामने से तो निगहबानी करें आँखें
कोई शा'इर सर-ए-बज़्म में "निर्भय" सा बदनाम क्या होगा-