ये पता है छोटे से मुझको बड़ा बनाया तुमने
कि कहीं भी जब भी मैं गिर गया तो उठाया तुमने
मैं भटक गया था अंधेरें में जब कभी कहीं भी
मिरे हाथ को पकड़ राह को तब दिखाया तुमने
मुझे माँ की ही तरह तुमने भी प्यार ही दिया है
लगी भूख़ तब भी पहले मुझे ही खिलाया तुमने
मिरी ज़िंदगी के हर मोड़ पे आज भी ख़ड़ी हो
परी-रू हरेक मुश्किल से मुझे बचाया तुमने
इसी जन्मदिन पे तुम से यही आज कहता हूँ मैं
मैं तो नाम से था "निर्भय" उसे सच बनाया तुमने
—निर्भय राज़— % &....— % &-
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
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हर बशर मुझ को यहाँ तो बे-ख़बर लगता है
राह पर चलना भी अब एक सफ़र लगता है
दिल पे खाई हुई चोटों का असर लगता है
अब तो इस प्यार के साये से भी डर लगता है
ग़र मबद्दत है मिरे अहल-ए-सुख़न से उस को
या-नबी ये तो दुआओं का असर लगता है
अब बुझा दी है तिरी याद की बाती मैंने
फ़िर भी ये शाम ही क्यूँ मुझ को सहर लगता है
यूँ तो हर मोड़ पे चेहरे को छुपाता है वो
अब तो आईने में भी मुझ को ख़तर लगता है
प्यार से करते हैं वो वार भी दिल पर "निर्भय"
मुझ को कातिल का पुराना ये हुनर लगता है-
दिल में अब कोई आरज़ू न रही
इश्क़ की कोई जुस्तजू न रही
ख़ुद से भी अब सवाल करते नहीं
जब ज़हन में ही गुफ़्तगू न रही
ज़ान कहते थे सिर्फ़ उस को हमीं
उस के भीतर भी आबरू न रही
तेरे जाने के बाद तोड़ दिया
मैंने हर चीज जिसमें तू न रही
याद आते हैं मो'जिज़े हमीं को
अब तो "निर्भय" कहीं भी हू न रही-
कौन अब मुझसे मिरी ख़ैरियत पूछता है
हर कोई मुझ से मिरी हैसियत पूछता है
ख़ुद के ख़्वाबों का गला घोंट देने के बाद
वो बशर मुझ से मिरी अहमियत पूछता है
कर लिया ख़ुद को भी बर्बाद सब के लिए ही
अब भला कौन मिरी कैफ़ियत पूछता है
कर दिए उसने मिरे घर के अब दो टुकड़े
क्यूँ मुझी से ही मिरी आफ़ियत पूछता है
घर के छोटे ने मिरी ओर मुड़ कर देखा
कैसे की है बड़े की तर्बियत पूछता है
मुज़्महिल ज़ोफ़ शिकस्ता से खड़ा हूँ "निर्भय"
अब तो मुंसिफ भी मिरी शख़्सियत पूछता है-
जो कभी अपना था वो तक अब मेरा चेहरा भूल गया
बात इतनी है बस वो हर इक इक पल बीता भूल गया
आख़िर जो होना था आख़िर में वो ही मुकम्मल हुआ
हर किसी को खुश रखते रखते ख़ुद ही हँसना भूल गया
मैं परछाई की तरह रहता था हर वक़्त उसके आसपास
वो ही शायद मुझ को परछाई में देखना भूल गया
उसके लिए क़ैस कर लिया हमनें भी अब इश्क़ से सौदा
बाज़ार में क्या है मँहगा अब क्या है सस्ता भूल गया
जो कुछ भी माँगा उसने वो सब मैंने उसको ही दिया
जब ख़ुद की बारी आई तो क्या क्या था माँगना भूल गया
दुनिया के इस मायाजाल में बहुत ही बुरा फ़ँसा है वो
मुझ जैसे इंसाँ तक को वो अब "निर्भय" लगता भूल गया-
चश्म-ए-क़ातिल अँखड़ियाँ को देख पागल प्यार में
अब सुनो तुम करता हूँ तारीफ़ मैं विस्तार में
ये नज़र अब हुस्न पर रुक जाए भी तो फ़र्क़ क्या
दम-ब-दम पुर-अम्र लगता उस की ही गुफ़्तार में
गाल की जानिब ही झुकती हैं परी-रू की लटें
वो मिली उस रात दीवाली के ही त्योहार में
ये तबस्सुम देखकर बेदार सा हो जाता हूँ
इसलिए माँगा तबस्सुम हमनें भी उपहार में
देखकर रुख़सार को तेरे यकीं आया हमें
तू ही है माँगा ख़ुदा से हमनें जो दरबार में
वस्ल की इक इक घड़ी तक को तरसता था मैं भी
फूल भी अब खिल चुके हैं दिल के राह-ए-ख़ार में
चेहरा-ए-ज़ेबा की मैं तारीफ़ में क्या ही लिखूँ
पारसा कहता है "निर्भय" उस को ही अश'आर में-
देख माँ ख़ुद को मैं हटा भी न पाया
दुनिया के दलदल से बचा भी न पाया
ग़म दबा के कब तक रखूँ अपने दिल में
रुला के तुझको माँ हसा भी न पाया
चाहता तो था मैं तुझे सब बता दूँ
लग गले सारे ग़म भुला भी न पाया
तेरी आँखों में आँसू आ देख कर माँ
चैंन से ख़ुद को मैं सुला भी न पाया
माँ दिखाना पूरा जहाँ चाहता था
माफ़ करना माँ मैं दिखा भी न पाया
इक लिखा था ख़त बस तुझे और तुझको
मैं बिठा के तुझको सुना भी न पाया
उसकी आँखों में देख के लगता मुझको
फ़र्क़ माँ को "निर्भय" करा भी न पाया-
कतरा-ए-इश्क़ को कब तक मेरी ये रूह दयार को तरसे
जले मन तेरा भी किसी छुअन को तू भी करार को तरसे
तेरे दुख में तेरे सुख में मैनें हर पल तेरा साथ निभाया
तूने जो सिला दिया तू भी मेरे ही ए'तिबार को तरसे
तुझसे नाता तुझसे रिश्ता काहे मन समझ ना पाया
तेरी बेवफ़ाई पर हंसे सभी तू भी प्यार को तरसे
पल भर में बिख़र सी जाएँ सारी ख़ुशियाँ जमाल पे तेरे
टूटे हुए शीशे की तरह तू भी अपने निखार को तरसे
दिल की गहराई से दुआ देता है "निर्भय" तुझे ये पैहम
कि तू भी हर-नफ़स किसी और के शमीम-ए-यार को तरसे-
वो तो हर किसी से बस यूँ ही मिलती है
मग़र हमसे वो अपनी खुशी से मिलती है
हक़ीक़त में मिलना चाहते है हम उससे मग़र
वो तो सपना है सिर्फ़ सपने में ही मिलती है
उसे पता ही नहीं हम दीवाने हैं उसके कब से
शक्ल भी उसकी किसी परी-रू से मिलती है
घर के आइनों पर लिखा है तेरा नाम जब से
तब से मम्मी भी मुझसे खुशी से गले मिलती है
उसके सामने फ़ीक़ी पड़ जाए चाँदनी चाँद की भी
दिल-ए-मुज़्तर को तस्कीन उसे देखने से मिलती है
उसके नाज़ उठाने को कब से बैठे हैं हम इधर क़ैस
"निर्भय" देखो कब ये जिम्मेदारी हमें मिलती है-