Nirbhay Saxena   (निर्भय राज़)
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Joined 19 March 2019


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21 APR AT 11:11

कौन अब मुझसे मिरी ख़ैरियत पूछता है
हर कोई मुझ से मिरी हैसियत पूछता है

ख़ुद के ख़्वाबों का गला घोंट देने के बाद
वो बशर मुझ से मिरी अहमियत पूछता है

कर लिया ख़ुद को भी बर्बाद सब के लिए ही
अब भला कौन मिरी कैफ़ियत पूछता है

कर दिए उसने मिरे घर के अब दो टुकड़े
क्यूँ मुझी से ही मिरी आफ़ियत पूछता है

घर के छोटे ने मिरी ओर मुड़ कर देखा
कैसे की है बड़े की तर्बियत पूछता है

मुज़्महिल ज़ोफ़ शिकस्ता से खड़ा हूँ "निर्भय"
अब तो मुंसिफ भी मिरी शख़्सियत पूछता है

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19 MAR AT 11:11

जो कभी अपना था वो तक अब मेरा चेहरा भूल गया
बात इतनी है बस वो हर इक इक पल बीता भूल गया

आख़िर जो होना था आख़िर में वो ही मुकम्मल हुआ
हर किसी को खुश रखते रखते ख़ुद ही हँसना भूल गया

मैं परछाई की तरह रहता था हर वक़्त उसके आसपास
वो ही शायद मुझ को परछाई में देखना भूल गया

उसके लिए क़ैस कर लिया हमनें भी अब इश्क़ से सौदा
बाज़ार में क्या है मँहगा अब क्या है सस्ता भूल गया

जो कुछ भी माँगा उसने वो सब मैंने उसको ही दिया
जब ख़ुद की बारी आई तो क्या क्या था माँगना भूल गया

दुनिया के इस मायाजाल में बहुत ही बुरा फ़ँसा है वो
मुझ जैसे इंसाँ तक को वो अब "निर्भय" लगता भूल गया

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2 FEB AT 11:11

चश्म-ए-क़ातिल अँखड़ियाँ को देख पागल प्यार में
अब सुनो तुम करता हूँ तारीफ़ मैं विस्तार में

ये नज़र अब हुस्न पर रुक जाए भी तो फ़र्क़ क्या
दम-ब-दम पुर-अम्र लगता उस की ही गुफ़्तार में

गाल की जानिब ही झुकती हैं परी-रू की लटें
वो मिली उस रात दीवाली के ही त्योहार में

ये तबस्सुम देखकर बेदार सा हो जाता हूँ
इसलिए माँगा तबस्सुम हमनें भी उपहार में

देखकर रुख़सार को तेरे यकीं आया हमें
तू ही है माँगा ख़ुदा से हमनें जो दरबार में

वस्ल की इक इक घड़ी तक को तरसता था मैं भी
फूल भी अब खिल चुके हैं दिल के राह-ए-ख़ार में

चेहरा-ए-ज़ेबा की मैं तारीफ़ में क्या ही लिखूँ
पारसा कहता है "निर्भय" उस को ही अश'आर में

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7 JAN AT 11:11

देख माँ ख़ुद को मैं हटा भी न पाया
दुनिया के दलदल से बचा भी न पाया

ग़म दबा के कब तक रखूँ अपने दिल में
रुला के तुझको माँ हसा भी न पाया

चाहता तो था मैं तुझे सब बता दूँ
लग गले सारे ग़म भुला भी न पाया

तेरी आँखों में आँसू आ देख कर माँ
चैंन से ख़ुद को मैं सुला भी न पाया

माँ दिखाना पूरा जहाँ चाहता था
माफ़ करना माँ मैं दिखा भी न पाया

इक लिखा था ख़त बस तुझे और तुझको
मैं बिठा के तुझको सुना भी न पाया

उसकी आँखों में देख के लगता मुझको
फ़र्क़ माँ को "निर्भय" करा भी न पाया

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1 DEC 2024 AT 11:11

मेरी कहानी

नीचे अनुशीर्षक में

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15 OCT 2024 AT 11:11

कतरा-ए-इश्क़ को कब तक मेरी ये रूह दयार को तरसे
जले मन तेरा भी किसी छुअन को तू भी करार को तरसे

तेरे दुख में तेरे सुख में मैनें हर पल तेरा साथ निभाया
तूने जो सिला दिया तू भी मेरे ही ए'तिबार को तरसे

तुझसे नाता तुझसे रिश्ता काहे मन समझ ना पाया
तेरी बेवफ़ाई पर हंसे सभी तू भी प्यार को तरसे

पल भर में बिख़र सी जाएँ सारी ख़ुशियाँ जमाल पे तेरे
टूटे हुए शीशे की तरह तू भी अपने निखार को तरसे

दिल की गहराई से दुआ देता है "निर्भय" तुझे ये पैहम
कि तू भी हर-नफ़स किसी और के शमीम-ए-यार को तरसे

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17 SEP 2024 AT 11:11

वो तो हर किसी से बस यूँ ही मिलती है
मग़र हमसे वो अपनी खुशी से मिलती है

हक़ीक़त में मिलना चाहते है हम उससे मग़र
वो तो सपना है सिर्फ़ सपने में ही मिलती है

उसे पता ही नहीं हम दीवाने हैं उसके कब से
शक्ल भी उसकी किसी परी-रू से मिलती है

घर के आइनों पर लिखा है तेरा नाम जब से
तब से मम्मी भी मुझसे खुशी से गले मिलती है

उसके सामने फ़ीक़ी पड़ जाए चाँदनी चाँद की भी
दिल-ए-मुज़्तर को तस्कीन उसे देखने से मिलती है

उसके नाज़ उठाने को कब से बैठे हैं हम इधर क़ैस
"निर्भय" देखो कब ये जिम्मेदारी हमें मिलती है

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2 SEP 2024 AT 11:11

आसमान-ए-दिल पर से दुखों के बादलों को हटा पाया नहीं
ज़ख़्म जो दिल पर लगे हुए थे उन्हें मैं अब तक भर पाया नहीं

कैसा वक़्त है कैसी बेक़सी है कैसी बे-रुख़ी है ये मोहतसिब
वक़्त ने वक़्त पर दिया ही नहीं और मैं भी कुछ कर पाया नहीं

न कल का पता है न आज का पता है न अब ख़ुद का पता है
जिस माँ ने पाला उसके लिए आज तक मैं कुछ कर पाया नहीं

काश अपने बूढ़े बाप को सुकून भरी ज़िंदगी दे पाता मैं मगर
अफ़सोस कि आज भी मैं उस क़ाबिल तक बन पाया नहीं

क्या गुनाह था उनका ख़ुदा जो मुझ जैसी उन्हें औलाद दी है
खुशी तो दूर की बात गम में भी उनका मैं सहारा बन पाया नहीं

दिन भर धक्के खाता रहता हूँ संभलने की अब हिम्मत ही नहीं
"निर्भय" सब कुछ गंवा कर भी मैं फ़िर शुरुआत कर पाया नहीं

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17 AUG 2024 AT 11:11

ग़म-ए-फ़ुर्क़त में किसी और का ज़िस्म पर उसके पैरहन देखा
रफ़ीक़-ए-राह को दौर-ए-हाज़िर में भी हमनें बदचलन देखा

निगह-बाँ चमक जाते हैं हमारे चार आँखें होते देख कर उस से
कलीम आसा हमनें भी उसके जैसा यहाँ एक हम-सुख़न देखा

ना कोई बड़ा है ना कोई छोटा है बस फ़र्क़ सोच का है यहाँ
हमनें भी ख़ुद को यहाँ कभी हयात का शंहशाह-ए-ज़मन देखा

वो भी सरेआम ज़िस्म अपना बेचकर ख़ुद पर नाज़ करने लगे
रस्म-ओ-रह-दुनिया में हमनें कभी उसका अच्छा आचरन देखा

राहत-ए-जाँ में जो ये सादगी है हमारे कुहन में हमारे "निर्भय"
किसी और पर कभी भी नहीं हमनें उसके जैसा बाँकपन देखा

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15 AUG 2024 AT 11:11

जहाँ चारों तरफ हरियाली है
जिधर देखो खुशहाली है
हर जगह होता सुंदर गान है
अपना हमारा भारत महान है

गौ रक्षा करते पुत्र सँभारी है
सनातनी यहाँ सब नर नारी हैं
समय पर होते यज्ञ विधान है
अपना हमारा भारत महान है

रीति रिवाज, संस्कृति प्यारी है
हर कर्म की परंपरा न्यारी है
रिश्ते, धर्म को मिलता मान है
अपना हमारा भारत महान है

राष्ट्र ये सब देशों में बलधारी है
भूमि ये राम कृष्ण अवतारी है
यहाँ "निर्भय" करता यश गान है
अपना हमारा भारत महान है

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