दिन- रात भू तपती है
आव्हान करती है
पिपासा अमृत की
प्राण प्रिये उबलती है
जग-जल , भू-थल
कर भाग पिघलती है
अनिल-अनल , वात-जल
सब उगलती है
धरा सुंदरी
जग-मग-जग-मग
प्रणय प्रभात करती है !
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साल भर की ज़िन्दगी को समेट
एक डायरी फिर रद्दी होने को है-
जैसे पतझड़ में सूखे पत्ते झड़ने पर
ठूँठ अकेला रह जाएगा पीछे
मैं रहूंगी बिन आत्मा के इस तन में....
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मै चाहती हूँ धरा पर आए
एक दिन, जब नष्ट हो जाए
वो जातियाँ धर्म मज़हब सब
ना मन में द्वेष दिखे ना ही ज़हन में गंदगी
वो भेद रंग- रूप का सब
घुल जाए खारे समन्दरो में कहीं
भाषाएं सारी उड़ जाए हवा में मिलकर
मन दुखी कर रही ये असमानता जल जाए
ग्लोब पर बनी ये टुकड़ों की सीमाएं धुल जाए
संसार में फिर इंसान दिखे... श्वास लेते हुए
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लहर कहे ह्रास समय का
लोप रहे मिलन का
आतुर है हृदय
कूल पर आने को
मांगे क्षण भर श्रृंगार का!
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सुरम्य तन उजला मुख और आकर्षक परिधान
मन कैसा है भीतर से ? नहीं हो पाता ज्ञान
जिव्हा से निकले शब्दों से होता संस्कारो का भान-
हमें सुधरने की ज़रूरत है
हां.... हमें ही,
हम ही तो बना रहे हैं ना ये समाज |
पग -पग पर व्यथाएं बट रही है
हमारे विचारो से,
हर पल कोई मर रहा है
हमारे तिरस्कारो से,
हमारेे द्वारा की गई टिप्पणीयां खतरनाक है |
ये कचोट रही है
किसी के मन किसी के चरित्र को,
अब इस सोच को हमारी बदलने की ज़रूरत है |
ये तोड़ रही है
किसी का विश्वास हम पर,
हां.. हमें ही सुधरने की ज़रूरत है |-
मृषा मुरेठा बंधे
शीश हुआ चौगुना
दर्प बहा जब चक्षुजल में
फिर सहे अवमानना-