अक्सर चोटों को सह-सहकर,
हंस-हंस कर हर चौराहे पर,
जोड़-जोड़ कर,करबद्ध निवेदन,
नित मंदिर और दरगाहों में,
कोमल कोमल हाथों में,
सुंदर सुंदर फूलों की,
मालाएं लेकर अधरंगे कपड़ों में,
छोटे-छोटे पैरों से दौड़ लगाते देखा है,
हां, दीन हीन दुर्बल बच्चों को
फूल बेचते देखा है,
प्रेम बांटते देखा है।
दौड़-दौड़ गंगा,यमुना संगम तट,
प्रयागराज की गलियों में,
शिरीष पुष्प के वृक्ष के नीचे,
नंगे,भूखे,लाचार बदन,
चंद्रमुख बच्चों के होठों से,
"गौरव"पूर्ण हंसी को हंसते देखा है,
भव्य,मनोहर,सुंदर नगरों की,
सत्य व्यथा को देखा है,
हां,'अधिकारपूर्ण'शिक्षार्थ सुतों को,
पुष्प बेचते देखा है
श्रृंगार बेचते देखा है।
#गौरव #
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#आंसू #
हे अश्रु!चक्षु के सुमन कुसुम,
हे! वीरसुता के दृग मोती,
नैनों से लुढ़क-लुढ़क गातों में,
कुछ यूं मिलते जज़्बातों से,
जैसे टूटे शैल नदी से,
प्रस्तर से खड़े भवन ऊंचे,।
प्रेम सूत तुम अश्रु लड़ी,
नैनन से निर्झर सम बह-बहकर,
प्रेमी को राह दिया प्रतिपग,
खुद नैन विरह को सह-सहकर
हे!शशि सम सुंदर वैरागी,
है ऋणी तुम्हारी हर माता,
है ऋणी तुम्हारे ,
हर कृष्ण पक्ष,
है ऋणी तुम्हारी हर राधा।।
#गौरव #-
कुछ कदम बढ़ो चाँद,तुम क्षितिज तरफ,
रात है घनी,मुलाकात मखमली,
साथ जब तलक हो तुम,ये रात है बड़ी,
कुछ कदम बढ़ो चाँद,तुम क्षितिज तरफ।1
ये रोशनी तेरी,छल सी अब लगे,
है नरम बड़ी न नैन को चुभे,
मगर ये तेरी चांदनी,औ' रूप की गमक,
कुरेदती है मिल के दिल के घाव को,
कुछ कदम बढ़ो चाँद,तुम क्षितिज तरफ।2
सूर्य भी बढ़े कुछ गगन तरफ,
नरम पवन चले,सुंदर सुमन खिले,
दिन के दिये जलें, ले दिनकर की लालिमा,
उठ पथिक बढ़े ,गंतव्य की तरफ।
कुछ कदम बढ़ो चाँद,तुम क्षितिज तरफ।।3
#गौरव #
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नवंबर की सर्द रातों में,
बरसती ओस बनकर बूँद,
पत्तों को नमीं से लबरेज करके ,
जड़ों की ओर जा रही है,
जैसे जा रही हो योजना कोई,
जन सामान्य के कल्याण की।1
बड़े पौधे,घनी झाड़ी,गगनचुम्बी तरु सभी,
जी रहे हैं कुछ ओस पीकर,
कुछ जमीं से खींचकर जल।2
सूखती सी दिख रही है घास,
कुछ नमीं और सहूलियत की आस में,
जैसे संस्थाओं की पंक्तियों में,
हो खड़ा कोई छात्र या फिर,
कोई दुखिया मदद की उम्मीद में।।3
#गौरव #
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जीने दो उसे जो आई है,
खुद सृष्टि का निर्माण लिए..
(A Poem On Female Infanticide)-
#शैवालिनी #
हिमगिरि श्वेत पुण्य चरणों से,
छिटक-छिटक चोरी-चोरी,
शैव शिला की प्रखर ढाल से,
घिसट-घिसट, इठला-इठलाकर,
दृष्टव्य बाल क्रीड़ा प्यारी।
उद्वेलित कर युवा भावना,
गति समीर सी विध्वंसक,
कर खंड-खंड पाषाण शिला को,
मिलती नूतन जीवन प्रवाह में।
गिरि के उद्गगम से उतर-उतर,
फैला आँचल का एक बड़ा भाग,
माँ की ममता सी,
मंद -मंद सस्मित गति,
करती कल-कल का अनुनाद।
सिंचित करती हुई धरा धाम,
हो जीर्ण शीर्ण ,
भारी कंधों संग,
फैला जीवन तट,
माटी में प्राण जीव,
ऐसे मिलती है सागर में,
जैसे मिलते हो धरा व्योम।।
#गौरव #-
#बादल #
ये काल से विक्रांत से,काले घिरे आकाश में,
एक स्याह छाया सी बनाते,रवि के निर्मल प्रकाश में,
हैं अकिंचित,डर न भय है,दिख रही नूतन लहर है,
सत्य ही बदलाव की, इनके विकट हुंकार में।
समय की पुकार से,धरा के उद्धार को,
आ खड़े हों जैसे दुदुंभी की पुकार से।
रात भर चमकती रही ज्वाला चित्कार की,
जैसे हों प्रतीक्षित नव क्रांति के शुरुआत को।
चाँद,तारे दूर भागे, हिरण की सी चाल से,
आ डटी स्वर्णिम प्रभा,प्रातः नभ संसार में।
आ मिले रवि,वायु औ' जलद सभी,
क्रांति के माहौल में,मिलन के इस प्रलाप में,
इक बूँद आ गिरी धरा में,एक नए बदलाव की,
खोल बाहें सुमन ने,बूंद का स्वागत किया,
एक नए अंदाज में।।
#गौरव #
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#नमन #
जीव जन्म से,प्रथम शब्द तक,
स्नेह,मोह,कर्म शिक्षा तक,
रोम रोम है ऋणी जिसका,
प्रथम शिक्षिका माता के,
सहज,सतत पूजित चरणों मे,
मेरा शत शत बार नमन।
क्रोध मोह का अप्रतिम समन्वय,
पाषाण हृदय के कोमल,तल में जिसके,
निहित सार सच्चे जीवन का,
मान,हया, गर्व,जीवन धन,
जो निःस्वार्थ दान देता है,
प्रथमपूज्य चरणों को पिता के,
मेरा शत शत बार नमन।
पग पग देतें हैं साथ सदा,
तय करते हैं जो दिशा धर्म,
सिंचित करते हैं राष्ट्र वृक्ष,
जो खुद के लहू पसीने से,
शिक्षा मंदिर के सदेह ईश्वर को,
मेरा शत शत बार नमन।
है मेरा शत शत बार नमन।।
#गौरव #
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दिल दिल्ली समझती क्यों नही,
धड़कती है वो रगों के जोर से,
रग, जिसमे बहता है लहू,
बनता है जो पेशानी से,
निचोड़ कर पसीने को।
आखिर दिल्ली झुकती क्यों नहीं,
जानते हुए ये भी की,
बिन झुके गिर जाते है टूटकर,
लंबे,ऊँचे,सख्त दरख्त अक्सर,
हवा के हल्के झोंक से ही,
माना उगते है फिर बीच से मगर,
बँट जाते हैं हिस्सों में अनेक,
और बढ़ते हैं ऐसे ,
जैसे,रेंगता हो घोंघा जमीन पर।
आखिर हर्ज़ क्या है?
झुकने में सामने उनके,
जिसने सिर उठाना सिखाया हो,
सिखाया हो जिसने खाना चलना,
जिसने गर्व से जीना सिखाया हो।
#गौरव #
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#आह्वान #
निष्पक्ष लिखो,कुछ क्रांतिपूर्ण,
कुछ ममतामयी,कुछ कालजयी,
कुछ लिखो भयंकर कालकूट,
फिर से जनता का राज लिखो।
तुम प्रेम लिखो श्रृंगार लिखो,
या लिखो विरह की निज गाथा,
कर जीवन के सारे दृश्य अलंकृत,
'गर मिले समय क्षण भर का,
तो वंचित की बात लिखो,
फिर खेतों की ओर मुड़ो,
फिर से किसान की बात लिखो,
कुछ क्रांति पूर्ण,कुछ ममतामयी,
निष्पक्ष लिखो कुछ कालजयी।
'गर पकड़ी है कलम हाथ में,
तुम समाज की बात लिखो,
दें आवाज यूं दग्ध हृदय को,
कि हाकिम की जड़ें हिलें,
जब-जब हो कत्ल तंत्र का,
नई सत्ता की नींव लिखो।
कुछ क्रांति पूर्ण,कुछ ममतामयी,
निष्पक्ष लिखो कुछ कालजयी।।
#गौरव #-