यूं जो बिखरे हैं हम ,
ऐसा नहीं कि हम तिरे रहते कभी नहीं बिखरे ,
हम टूट के संभले सो दफा ,
एक दफा फिर तिरे आगे बिखरने के लिए !
तेरी इक चिंगारी को हवा दी है हमने अपनी सासों से ,
रगों में शोले न बहें तो फिर क्या ही बहे !
जल जल के भी चमकेंगे तिरे आगे ,
आहिस्ता आहिस्ता न जले तो फिर क्या ही जले !
ज़िंदगी के पन्नों पर हर्फ-दर-हर्फ लिखें हैं तिरे किस्से ,
लिखावट सुर्ख लाल न हो तो कोई पढ़े कैसे !
मरीज़-ए-इश्क हो ,और लाइलाज न हो ,
मौत इश्क को फिर हम कहें कैसे !
पुराने जख्मों को कुरेदते रहे ,भरने न दिया ,
दर्द का हरा रहना ज़रूरी है मिरे जीने के लिए ,
दरिया मैं कोई , तुम समुंदर जैसे ,
खुद को खोते रहे ,हम तुझसे मिलने के लिए !
जो कभी यादों में फंसे तो हस्ते रहे ,
अर्सा हुआ ,हमने आंखों से तुझे बहने न दिया ,
तेरी निशान है जेहन में कई गहरे ,
इक तिरी धुंधली तस्वीर ने हमें किसी और का होने न दिया ।
तिरे जाने से जो टूटे ,हम अब्तलक टूटे ही रहे ,
हम सिमटे भी तो भला किसके आगे बिखरने के लिए !-
मुझे बात अब उसी से करनी है
और बात भी बस उसी की करनी है,
कई दीवाने होंगे हाँ मेरे,
पर क्या करूं जनाब,
मुझे बदतमीज़ियाँ बर्दाश्त भी
बस उसी की करनी हैं ।।-
बात-बात पर मुझे आईना दिखाने वालों
कभी खुद की भी शक्ल आईने में देखे हो का-
खुद की सीमाओं से मुक्त हो कर
नए संभावनाओं को पहचाननी है।
खुद की भय की बीड़ियों को तोड़ कर
जीवन की दुर्गम धारा में छलांग लगानी है।
दूसरों के परवाह छोड़ कर
इस दिल की हसरतें को अभी पूरी करनी है ।
भावनाओं के गहराई से निकल कर
उस अनंत शक्ति को जाननी है।
मन की उग्रता को नियंत्रित कर,
अंतर्मन की उषा को प्राप्त करनी है।
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मैं तुम्हारे नाम कायनात भी लिख दूं तो आम है ,
तुम मेरा नाम भी लो तो हो कयामत जैसे ।।
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गर मुझसे है कोई मिलता
मुझसे नहीं वो मिलता,
मैं खो चुका हूं तुझ में
जैसे ग्रहण चांद को निगलता ||-
लोग कहते हैं लिखते अच्छा हो
तुम्हारे अल्फ़ाज़ उम्दा है
लिखते हो जो मुसायरे
उन्हें दिल से जोड़ते बढ़िया हो
इश्तिआल कहां से लाते हो
किसके किस्से दोहराते हो
जिसकी तमन्ना में तप रहे हो
खुद को राख करते जा रहे हो
रेत के बने हो तुम
और हवाओं से बैर लेते हो
आफताब है वो
तुम महताब से दहकक उठते हो
शम्स सी कशिश
नूर-ए-क़मर के अरमान रखते हो
साहिल-ए-खुल्द पर हो
और तुम मर्ग से इंकार करते हो
तअस्सुर से जिसके इज़्तिराब रहते हो
मश्शियते हैं तुम्हे जिसके मुसलसल कुब्र की
अर्श पर बैठा वो क्या तुमारे होने का इल्म रखता है ?-
मेरी लिखावट ने जिंदा रक्खा है नाम तेरा ,
बिना मेरी नज़्म के महफिलों में तेरा नाम नही आता !
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