न मृदंग,न सुरताल,न घुँघरूओं की पदचाप है।
फिर मेरा मन क्यों मलंग हो नाच रहा आज है।।
प्रथम प्रेम अनुभूति है या हृदय भित्ति उन्मादित है,
तुमसे अंतर्मन के तार जुड़े या भाव मेरे तरंगित हैं,
हृदय स्पंदन की सरगम में प्रेमराग का आलाप है,
न मृदंग, न सुरताल, न घुँघरूओं.................
नीलाकाश रत्नाकर लगे,हुई इंद्रधनुषी धरती,
तुम उतरे अंतस में ऐसे,जैसे हुई यौवन प्रतीति,
मादक नहीं है मौसम फिर भी बहके उर ताप है,
न मृदंग, न सुरताल, न घुँघरूओं.................
कहा अनकहा रहा फिर भी चल रहा प्रेम संवाद है,
नींद को कहीं दूर सुला,देने साथ आयी अब रात है,
दृश्य हुए अदृश्य सभी,आँखों में इक उसकी छाप है,
न मृदंग, न सुरताल, न घुँघरूओं.................-
कहीं पर है जमीं सूखी , कहीं बादल बरसता है
कोई इक बूँद को तरसे , कहीं दरिया भरा सा है
चमन में हैं शजर ऐसे, समर, पत्ते, हसीं गुलपोश
मगर ताउम्र होता कब परिन्दों का बसेरा है
सफ़र तन्हा ,नहीं मंज़िल, मुसल्सल चलते जाना तू
जहाँ में हर किसी ने खुद तलाशा अपना रस्ता है
रहेगा कब तलक यूँ मुंतज़िर , आज़ादी के प्यारे
थे जिनके हौसले ज्यादा, उन्होंने तख़्त पलटा है
जवानी छोड़ जाएगी , बुढ़ापा भी दगा देगा
ढलेगी उम्र तो फिर हर कोई बच के निकलता है
मिली नाकामियाँ तो जाना रिश्तों की हकीकत को
कि हर चेहरे के नीचे एक रक्खा और चेहरा है
हूँ वाकिफ़ तेरी फितरत से ,मगर कहती नहीं मैं कुछ
है मतलब कुछ तभी लहजा, तेरा शीरे से मीठा है
लिखा जब हाल-ए-दिल अपना,'प्रिया' को तब समझ आया
जो उतरा काग़ज़ों पर वो लहू का मेरे कतरा है-
था वक्त रेत सा तो फिसलता चला गया
मसरूफ़ जिन्दगी से यूँ लम्हा चला गया
मुझसे रखा था सबने यूं उम्मीद का जहां
साँचो में मोम सा मैं पिघलता चला गया
मुस्कान का लिहाफ़ लपेटा है इस तरह
ताउम्र खुद को बस यूं ही छलता चला गया
अब तो किसी से शिकवा शिकायत भी है नहीं
हर शख़्स जब नज़र से उतरता चला गया
अपनों ने पीठ पर किया था वार जब मेरे
पत्थर में दिल को बस मैं बदलता चला गया
हमको न आया दिल को दुखाने का भी हुनर
था जहर में वो डूबा उगलता चला गया
आईने से नज़र को चुराया है हर दफ़ा
नाकामी देख अक्स मुकरता चला गया
जब दर्द में था हाल न पूछा मेरा 'प्रिया'
उतरा जो कागजों में तो बिकता चला गया-
वक्त लंबा तेरी फुरक़त में गुजारा है बहुत
वस्ल की उस रात का मुझको सहारा है बहुत
उस फलक के चाँद की ख्व़ाहिश मुबारक हो तुम्हें
आशियाँ में मेरे जुगनू का नज़ारा है बहुत
देखते हैं खुद के चेहरे में ही सारी रंगते
तेरी झुकती सी निगाहों का इशारा है बहुत
कौन देखे इस जहाँ के अब नज़ारे भी भला
तेरी इक तस्वीर का ही बस शरारा है बहुत
बाद तेरे जिन्दगी शमशाद भी अपनी रही
दिल को हर लम्हा तेरा इक ग़म भी प्यारा है बहुत
तुम से जो कुछ भी मिला ईनाम लगता है मुझे
लोग कहते थे मुहब्बत में ख़सारा है बहुत
कितने तूफाँ देखे हमने इश्क़ में तेरे सनम
हर दफा ही सब्र को लड़ने उतारा है बहुत
खत्म होगीं दूरियाँ ये, है यकीं मुझको सनम
एक इस उम्मीद का मुझको सितारा है बहुत
भूलते भी कैसे उसको दिल में रहता है 'प्रिया'
इस जहाँ में सिर्फ़ वो ही अब हमारा है बहुत-
बेसुध हो जब मन मेरा
और तन में घाव गहरे हों
धड़कने शिथिल सी लगे
औ नैनों से भाव बह रहे हों
उस क्षण जब तुम्हें लगे
निस्तेज प्राण देह मेरी
हाँ ,उस समय एक
काव्य गोष्ठी तुम सजा देना
बुलाकर रचनाकारों को
कुछ रचना मुझे सुना देना
देखना ,जी उठूँगी मैं पुन:
काव्य की औषधि से
शब्दों के तरल द्रव्य से
धमनियों में होगा रक्त संचरण
जाग जाएँगी मस्तिष्क तंत्रिकाएँ
देह मृत दिखेगी तुम्हें परंतु
जीवित रह जाएगी कविताएँ !!-
गाँवों में भी हरे शजर थे कभी
सादगी से भरे बशर थे कभी
सोने से दिन सितारों की रातें
दिल बड़े और छोटे घर थे कभी
मुफ़लिसी थी मगर न कोई शिकन
फिक्र से लोग बेखबर थे कभी
घाट पनघट भी खिलखिलाते थे
मिट्टी रंगे दिवार-ओ-दर थे कभी
था बुजुर्गों का हाथ सर पे सदा
मशविरे साथ पुरअसर थे कभी
रास्ते कच्चे पर यकीं पक्के
सब मुसाफ़िर ही राहबर थे कभी
हो चले गाँव शह्र जैसे अब
जो बनावट से बेअसर थे कभी-
ज़ख़्म गहरा हो ,तो मुस्कुराती हूँ मैं
खुद को हर बार ही आजमाती हूँ मैं
ख़ुश्क आँखों में तुम मत तलाशो नमी
अश्क़ ऐसे ही अक्सर बहाती हूँ मैं
उम्रभर साथ देता नहीं अब कोई
खुद को खुद से हमेशा मिलाती हूँ मैं
यूँ तो मुझको यकीं एक पल का नहीं
ख़्वाब पलकों में फिर भी सजाती हूँ मैं
ज़िन्दगी की तपिश से निखर जाऊँगी
सोने सा रोज़ खुद को तपाती हूँ मैं
बाकी शायद रहा रिश्ता उससे मेरा
नाम लिखती उसी का मिटाती हूँ मैं
अब न शिकवा गिला है किसी से 'प्रिया'
जो दुखे दिल ख़मोशी सजाती हूँ मैं-
निगाहों से निगाहों को मिलाना भी मुहब्बत है
मिलाकर फिर निगाहों को झुकाना भी मुहब्बत है
अभी तो राब्ता तुझसे हुआ भी कुछ नहीं ज्यादा
यूँ दिल का,तेरी जानिब, चलते जाना भी मुहब्बत है
मेरे पत्थर से दिल पर तो कोई देता नहीं दस्तक
मगर तेरा ,दबे पाँवों से आना भी मुहब्बत है
गजब की शोखियाँ, कातिल अदाएँ और काला तिल
तेरी ख़्व़ाहिश में अब खुद को डुबाना भी मुहब्बत है
अगर देखूँ मैं आईना नज़र आता है इक बस तू
तेरे ही अक़्स में खुद को मिटाना भी मुहब्बत है
कयामत है मेरे नज़दीक से तेरा गुज़र जाना
मुसल्सल धड़कनों का गुनगुनाना भी मुहब्बत है
सहर क्या ,रात क्या, हर सू तेरा चेहरा नज़र आए
अकेले में तेरी महफ़िल सजाना भी मुहब्बत है-
चश्म अश्कों से कभी धोते नहीं
सबको हासिल ये हुनर होते नहीं
तोड़ देते सबसे हम भी राब्ता
दिल कहे अपनों को यूँ खोते नहीं
याद कर उनको बिताया पूरा दिन
स्याह रातों को भी अब सोते नहीं
दे रहे पुरजोर सबको मशविरे
क्यों वही उनको कभी ढोते नहीं
कह दिया है सच को सच हमने सदा
कोई पिंजरे में पले तोते नहीं
हम भला ग़म की नुमाइश क्यों करें
बोझ ग़म के गैर तो ढोते नहीं
हो गई दिल की ज़मीं बंजर 'प्रिया'
तुख़्म - ए - उल्फ़त बारहा बोते नहीं-
अब पाक यहाँ कोई किरदार नहीं होता
दिखता है भले लेकिन वो प्यार नहीं होता
कब इश्क़ के दीवाने नुकसान नफ़ा देखे
जो सोच के हो जाए वो प्यार नहीं होता
झुक जाती अना थोड़ी, फिर टूट नहीं सकते
नाता कोई भी इतना लाचार नहीं होता
मसरूफ़ हुआ हर दिन ,अब चैन सुकूँ चाहत
इतवार भी पहले सा इतवार नहीं होता
आते हैं वो अक्सर छत पे चाँद की ख़्वाहिश में
यूँ जागना अपना भी बेकार नहीं होता
पत्थर है खुदा.. कहते, मुझसे ये जहां वाले
जब उसके करम से घर गुलज़ार नहीं होता
हो जानना मुझको तो दिल पे मेरे दो दस्तक
हर बार मेरा चेहरा अखबार नहीं होता-