जब भी आता हूँ तेरे घर लौटने तुझे... मेरे बंद मुठ्ठियों से फिसल जाती हो तुम तेरी दी हुई एक तस्वीर में ये जाना.. कुछ ज्यादा ही रेत सी नजर आती हो तुम भीगी हुई है अब बरसाते भी यहाँ... मेरी पलको पर ठहरे अश्क जैसी हो तुम
ये कैसी सियासत फैली हुई है चहूंओर.. हर तरफ दल बदलने की हवा चल रही है तु कहे एकबार तो पंखा में भी मंगवा दूं ... बस ये बता दें तेरी सियासत किधर चल रही है
धुधली पड गयी यादें तो खुद को मजदूर बना लिया तक़दीर में लिखे तेरे बेवफाई को भी यार बना लिया भरी दोपहरी खटता रहा दिनभर यादों को संजोने में शाम हुयी तो तेरे यादों संग एक नया घर बना लिया