अक्स था जिनका छलकते हुए पैमानों में
साक़िया अब वो बहारें नहीं मैंख़ानों में!
खेल था जिसके लिए कोह-कनी ऐ हमदम
आज वो जोशे जुनूं ही नहीं दीवानों में!
कोई भंवरा 🐝 नजर आता नहीं मंडराता हुआ
उफ़! बहार आई है कैसी ये गुलिस्तानों में!
आह ये वक्त कि जिन पर था भरोसा मंज़र
वो यगाने भी नजर आते हैं बेगानों में !!
#मंज़र
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7 MAR AT 5:15