पर न जाने अभिमान क्यों जागा तुममे,
क्यूँ आक्रोश और अस्मिता से हो गये थे पूर तुम ।
न जाने क्यों प्रचण्ड क्रोध से कुपित हो जल रहे थे,
अवलेप में न जाने क्यूँ लिप्त हो गए थे तुम।
इक गुमान की जो तरंग सी उठी थी तुममे ,
उस लहर के बहाव में बह रहे थे तुम।
इश्क़ की टूटती हुई कड़ी को अनुबंधित कर,
वक्त को इस मोड़ पर आने से रोक सकते थे तुम।
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