मैं क़ुरान के पन्ने पलटता हुआ गुरूद्वारे की गुरबानी सुन रहा था गिरजाघर के घंटे की आवाज़ अब भी मेरे कानों में गूंज रही थी मेरी आँखें श्रीराम के उस मंदिर पर जा अटकी थी मानो कुछ अपना सा लगाव हो उसके साथ बस यही कुछ बातों के बीच गुम मैं ना जाने कब ख़ुद में खो गया उस दिन मुझे इस बात का एहसास हुआ, कि धर्म कितना भी बाँट ले इस मन को, तन से तो मैं इंसान ही रहूँगा!
आज देखता हूँ जब इमारतों पर खरोंच करती उस अदना सी नादान बिल्ली को सोच में बैठा खुश हो जाता हूँ कि बेअक्ल ही है बेचारी जो नाकाम सी कोशिशों में जुटी है बेसुध, बेचैन उसकी अठखेलियाँ देख मैं पूछना चाहता हूँ उससे कि चाहती क्या है तू उस दीवार से? कौन से इरादे लेकर आती है तू रोज़ और ऐसे कौनसा दीवार गिराना है तुझे बस इसी कश्मकश में दिन ढल जाता है मेरा और अगली शाम मैं फिर लौट आता हूँ उसी बिल्ली को कोई और इमारत खरोंचते देखने को