सुना तो था दिल्ली दिल वालों की है ,
समझी तब ,
जब दिल्लगी दिल्ली वाले से हुई।-
लबों से कच्चा है तू ,
हरकतों से लुच्चा है तू ,
कैसे तुझे ना सोचूं ?,
आँखों से सच्चा है तू ।-
इतनी कड़वाहट जाने कहाँ से लाते ये लोग ?,
हमें तो रहीम की सेवईं खाने से फुर्सत नहीं ।-
अगर सीखनी हो आँखों की बोली ....
तो आना शाम छत पर, सीखा दूँगी ... !!-
तस्वीरों की पिटारी सहरा खोली ,
चेहरे की मुस्कान दोबारा खिली ,
भूले-बिसरे किस्सों की ढील लिए ,
यादों की पतंग लहरा चली .... !!
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माँ के हाथ की, रोज़ की दाल की कदर तब हुई ,
जब होस्टल के, रोज़ नए व्यंजन का स्वाद चखी ।-
ज़िद्द की लड़ाई में ,
बाजी किस ज़िद्दी की ?
मेरे खुद की, या....
उनकी बेख़ुदी की ?-
आंसू...!!
जब-जब मेरी आँखों से आंसू गिरते ,
मेरे अंदर छुपी ताकत को बयाँ करते।
कभी मेरे हाल-ए-दिल की जुबाँ कहते।
कभी-कभी बेसबब बहते।
तो कभी ये खारे पानी सुन्न पड़े दिमाग पर लेप करते ।
यूँ तो मेरे रोने को कई पहलु मिले ,
किसी ने जज़्बाती ,
किसी ने बेबसी ,
किसी ने व्यापारी ,
तो किसी ने बस नुमाइश समझा ।
पर मोल लगाने वाले क्या जानें ,
कि रोना मेरी कमज़ोरी नहीं ,
बल्कि मेरे पहले साहस की कहानी है ।
कि जब मेरी इस दुनिया में जीने की बारी आयी ,
मैं रोते ही सांस लेने की हिम्मत कर पायी ।
जब-जब मेरी आँखों से आंसू गिरते
मेरे अंदर छुपी ताकत को बयाँ करते ।
-संध्या
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हमने तुमसे, कहाँ ज़्यादा की उम्मीद की थी ,
तुम्हारी महफ़िल में, बस अपने नाम की उम्मीद की थी ,
शायद हमी थे नादान, जो तरसती निगाहों को इश्क़ समझ बैठे ,
वरना तुमने तो, हमारे यूँ आने की कहाँ उम्मीद की थी.... !!-
गलती तुम्हारी नहीं जो तुम फिसले.....
हमी तुम्हें अपनी निगाहों से बचा न पाये..... !!-