एक कथा निश्छल प्रेम की,
पूर्ण जिसे हम कर ना सके ।
स्वप्नों की उस स्वर्णपरी को,
यथार्थ पर हम ला ना सके ।
करते रहे प्रयास अथक, पर
प्रियतम को हम पा ना सके ।
तुम ही थी क्या दुनिया में बस,
जानेजाँ तुम्हें भुला ना सके ।
कर ही लिया निष्ठुर ख़ुद को फ़िर,
पास कोई अब आ ना सके ।
जान लुटाकर, जान पर हम
जान को ही पा ना सके ।-
रक्त हृदय में खौल रहा है
ज़र्रा - ज़र्रा बोल रहा है
राष्ट्र का प्रतिकार लो तुम
एक के बदले चार लो तुम
कुर्बान वतन पर जाने वाले
माँ भारती के रखवाले
नमन करो उन वीरों को तुम
चीर दो रिपु शीशों को तुम
क्रंदन में जो चीख रही है
चुनरी जिसकी भीग रही है
मान करो उस बिंदी का तुम
ताज हरो अब पिंडी का तुम-
चाहत की चंचल चिड़िया पर
रस्मों का पिंजरा आन पड़ा
जीते जी पाखी प्राण उड़े
दीवाना जिसका नाम पड़ा... (10)
.....समाप्त-
दुनिया दारी की महिमा न्यारी,
कसमें-वादे खा गई सारे,
साथ की जब बात छिड़ी,
रीति नीति आ गई आड़े... (9)-
मैं राँझा हूँ तू हीर मेरी,
है धवल रूप सूरत तेरी,
जब जब नैना दीदार करे,
लगती जैसे कोई स्वप्न परी... (7)-
हम दिन को रात समझते थे,
और रात में चाँद को तकते थे,
चंदा संग जैसे चाँदनी,
हम उनको अपना करते थे... (2)-
सूर्य का हूँ तेज मैं
अग्नि सा प्रचण्ड हूँ
वायु का हूँ वेग मैं
नीर सा विचल भी हूँ
पंच तत्व का मिलन
ब्रम्ह का प्रकाश हूँ
आप दीप हूँ सदा,
तिमिर का मैं विनाश हूँ-
जब सजग सितारे होते थे,
वो ख़्वाब हमारे होते थे,
न बोल सके थे लफ्ज़ अभी,
जो चाँद से साझा करते थे... (3)-
नींदों से ओझल रातों में,
बातों का ख़ूब व्यापार बढ़ा,
किस्सों में और जज़्बातों में,
फ़िर प्यार भी परवान चढ़ा... (5)-
इक दूजे में खो गए दोनों,
ख़ाब सलोने बो गए दोनों,
प्रीत की ऐसी लगन लगी,
इक दूजे के हो गए दोनों... (8)-