ग़ज़ल के चंद लफ्जों में तेरी ही बात अब होगी
उन्ही मिसरों में मेरी भी कहीं औकात अब होगी
सियासत है अगर ये चाहतों का रोज़ टकराना
सँभलना ए मेरे हमदम किसी की मात अब होगी.!!
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ये कौन जानता है, कितना धुंआ हुआ
सूरज तो जल रहा है सदियों से आज तक...
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भीड़ भीड़ ना कीजिए
ये भीड़ बढ़ावे रोग
दूरी धरनी है हमें
अरे! कब समझेंगे लोग
अरे! कब समझेंगे लोग
नियंत्रण बहुत जरूरी
बात करें गर आप
रखें फिर पूरी दूरी
कहत कवि कविराय
अभी भी है कुछ मौका
रखें हम सब साफ
घर-शहर, चूल्हा चौका
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वतन की बात गर निकली तो हम यलगार देखेंगे
सम्भालो साज तुम अपने कि हम तलवार देखेंगे
मुकद्दर आजमा के देख लो तुमको यकीं गर है
कि हम तो धूप में माथे से टपकी धार देखेंगे
चमन कितना ही कातिल हो हमें डर क्या है जीने में
कि हम तो गर्म सांसों की यही रफ्तार देखेंगे
चले आए कोई कितनी यहां पे रोशनी लेकर
कि हम तो शम्मा में जलते हुए अंगार देखेंगे
वो कहते थे कि हम सुलझा ही लेंगे बात जो होगी
कि हम तो हर दफा बिगड़ी वही सरकार देखेंगे
मगर उनको खबर क्या थी कि अब है आग सीने में
कि वो खुद पे ही अब लटकी हुई तलवार देखेंगे
इशारे और भी होंगे, नजारे और भी होंगे
है मुमकिन अब सफर आगे, तुम्हें उस पार देखेंगे
सम्भल जाओ कि बस काफी है इतना दिल मिलाने को
तिरंगा शीर्ष पर फहरा हुआ हर बार देखेंगे...!!
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तसव्वुर में कई आलम लिए हम आज बैठे हैं
खबर है ये गुलिस्तां में वो बनके ताज बैठे हैं
उधर है झील सा मंजर इधर बेताब दिल मेरा
कोई देखे तो फिर समझे कि कितने राज़ बैठे हैं
तबस्सुम सी मचलती हैं निगाहें शौक से उनकी
ये लगता है कि दरिया में मचल के साज बैठे हैं
चले महफ़िल में उनकी हम कि हाँ दीदार कर लेंगे
मगर देखा वहां तो होश खो परवाज बैठे हैं
कहाँ फुरसत कहाँ चाहत कहाँ बेताब दिल मेरा
खुदा अन्जाम लिख दे कि यहाँ आगाज़ बैठे हैं..!!
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आँखों से उतरकर आज फिर भीगी कहानी है
बताएं क्या छुपाएं क्या, बहुत बदहाल पानी है
गिरा है और भी नीचे, अभी तो और जाएगा
सम्भालो तुम जरा इसको, बहुत बदहाल पानी है
शीशे की दीवारों से चिपक तो जाए ये लेकिन
फिसलने का है डर इसको, बहुत बदहाल पानी है
कभी बहता था ये सरपट, कभी ये दौड़ जाता था
मगर अब सूख जाता है, बहुत बदहाल पानी है
हमारे कल हमारे आज की यही इक निशानी है
सम्भालें हम चलो मिलके, बहुत बदहाल पानी है..!!
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पुरसुकूँ तक अब.... सुकूँ है किसे
धूप की आजकल अब खबर है किसे
दौड़ते हैं सब यहाँ बस यूँ हीं बेख़बर
जाड़ों में जाड़े की अब खबर है किसे..!!
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उठी पताका पर्वत ऊँची, तब दुश्मन थर्राया है
हिन्द के मस्तक पर अब देखो, केसरिया फहराया है
झेल रहे थे दंश निरन्तर, आज़ादी के बौने का
दूर हुआ वो कण्टक देखो पुष्प निकल खिल आया है
तंत्र हुआ स्वतन्त्र तभी जब सागर सिंधु मिले अटल
विष छलका सागर ने पहले, अमृत अब छलकाया है
हुआ पराजित शत्रु जब हुंकार भरी सिंहासन ने
तप्त हुआ संतप्त हुआ जल स्नेह बिंदु भर आया है
कितने घाव सहे जन गण ने कितना कुछ बलिदान किया
व्यर्थ हुआ नहीं रक्त ये देखो, हिन्द शीर्ष लहराया है
देश प्रेम निज भाव सदा हो, हर मन ये स्वीकार करे
निम्न सदन ने, उच्च सदन ने भाव यही दोहराया है
कर्म सदा फल देता जग में, व्यर्थ नहीं कुछ शेष यहां
एक बार फिर तथ्य यही मधुसूदन ने समझाया है...!!
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तुम्हारे इश्क़ में जल कर अगर हम खाक ना होते
ख़ुदा भी देखता मेरे जनाजे हुस्न का जलवा....!!
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नशे की शै वही समझे जिसे हो दर्द का मालूम
यूँ हीं बस झूम के गिरना इशक का काम नहीं है....
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