कुछ इस कदर चुप हो जाना चाहता हूँ,
कि
खुद को भी खुद सुनाई ना दूँ!
कुछ इस कदर दूर, कँही दूर चले जाना चाहता हूँ,
कि
खुद को भी खुद दिखाई ना दूँ!-
तुम कभी नहीं मिलना चाहो, तुम बात नहीं करना चाहो,
मैंने भी ज़िद करना छोड़ दिया, मैंने भी मिलना छोड़ दिया,
जो नहीं कहा ना सुन पाये,
और इश्क़ अधूरा रह जाये!
पर जहाँ रहूँ जिस हाल रहूँ, मैं तुमको हर पल याद करूँ,
तकिये पर जब भी सर रखु, वो भीनी ख़ुशबू याद करूँ,
मैं देखु हर पल वो सपने, जो नहीं हकीकत हो पाये,
और इश्क़ अधूरा रह जाये!
तुम यूँ ही नज़रन्दाज़ करो, तुम यूँ ही कभी ना याद करो,
तुम बात-बात पे ना रूठो, तुम हंस के भी ना बात करो,
तुम आँखों को ना पढ़ पाये,
और इश्क़ अधूरा रह जाये!
हम दोस्त कभी ना बन पाये, तुम इश्क़ कभी ना कर पाये,
मेरी ग़ज़लों में जो नाम छिपा, वो नाम कभी ना पढ़ पाये,
और इश्क़ अधूरा रह जाये....
और इश्क़ अधूरा रह जाये!-
कब तक माँओं की कोखें यूँ सुनी होती जाएँगी,
कब तक कफ़न देख भाई के बहनें अश्रु बहायेंगी,
कब तक वो कायर छिप-छिप कर ऐसे खून बहायेंगे,
कब तक दिल्ली में बैठे बस निंदा करते जाएंगे?
शहीद हुवे जो यार वतन पर अब और नहीं देखे जाते,
'लाल' तिरंगे में लिपटे अब और नहीं देखे जाते!-
आपकी ये आँखे समुद्र हैं
और मैं
इस समुद्र की गहराइयों में
रहने वाली जलपरी हूँ
जो आपसे ,
आपमे डूब कर बेंतीहा प्यार करती हैं-
तिल-तिल कर जीने से अच्छा इक बार में ही मर जाऊँ,
या कुछ ऐसा कर जाउँ की मर के अमर हो जाऊँ,
मैं अमरनाथ बन जाऊँ!
अपनों के जीवन में जो विष है, उसको देख न पाऊँ,
काश मैं अमृत देकर सबको, सबके विष पी जाऊँ,
मैं नीलकण्ठ बन जाऊँ!
हार-जीत से ऊपर उठकर, 'विश्वसेन' हो जाऊँ,
जो विश्वविजेता बनकर उभरे, वो 'बिसेन' कहलाऊँ,
मैं विश्वनाथ बन जाऊँ!
दुनिया में जो पाप है फैला, उसका विनाश कर पाऊँ,
डमरू बन मैं महाकाल का, तांडव नृत्य रचाऊं,
मैं महादेव बन जाऊँ!-
और इक बार में ही सावन पतझड़ सा हो गया,
मुझको कहा जब 'इश्क़ करना नहीं आता'!
और इक बार में ही रेत सा सब कुछ फिसल गया,
जो कुछ किया था अब तक सब कुछ भुला दिया,
'मुझे इश्क़ है तो केवल खुद के वजूद से',
ऐसा कहा जब उसने तो सब कुछ उजड़ गया!
जिता रहा है अब तक जो सोच कर 'बिसेन',
उस सोच पर उंगली उसने उठा दिया,
और इक बार में ही सावन पतझड़ सा हो गया!-
Tumhe mere baare mein jo bhi galatfehmi hai na..!
Main unki safaayi dena zaruri nahi samajhti.
🤨-
ऐ वक़्त तू जो बेवक़्त मेरा इंतेन्हा लेता है,
जब-जब उठने की कोशिश करता हूँ मुझे गिरा देता है,
तुझसे शातिर तुझसे निर्मम मैंने नही देखा,
तेरा किसी की उम्मीदों को इस कदर रौंदते मैंने नहीं देखा,
ऐ वक़्त तुझसे बेरहम शख़्स मैंने नहीं देखा!
मेरे हर इक अभिमान को तूने ऐसे रौंदा है की मुझे उठने में कुछ वक़्त तो लगेगा,
अपनों के वक़्त को बदलने में खुद का वक़्त बेवक़्त कर लिया,
और अपनों ने ही पलट कर मेरा वक़्त पूछ लिया,
पूछ लिया मुझसे की हमारे वक़्त को बदला ही कहाँ तूने,
पूछ लिया की तुझे अपने इश्क़ पे बड़ा गुमाँ था न, उसे कब वक़्त दिया तूने,
वो भी छोड़ क्या इश्क़ भी सही से किया तूने?
तेरे इश्क़ का सलीका गलत है,
तू गलत तेरा तरीका गलत है!
ऐ वक़्त अब बख्श दे, मुझे और मेरे अपनों को,
मेरे आशियाँ और उन सबकी खुशियों को,
बख्श दे!
ऐ वक़्त गुजर जा,
मेरे हौंसले पस्त हो जाएँ, मैं खुद गुजर जाऊँ,
उससे पहले गुजर जा!-