किसने कहा हथेली की लकीरें भविष्य दर्शाती हैं,
लोगों की कही हुई बातें आज भी याद आती हैं,
कहते थे इतनी बड़ी आशायें वक्त पर दम तोड़ देती हैं,
अरे इन्हें क्या पता, फूंक मार दें हम नदियाँ तक अपना
रास्ता मोड़ देती हैं ।-
मेरी हिम्मतें भी परछाई में रह गई,
जब से मेरी रातें तेरी कलाई में रह गई;
मुझे इशारे से समझाने का इशारा कर दे,
मेरी आवाज़ तो किसी शहनाई में रह गई;
दिन-दहाड़े तिज़ोरी खाली हो गई, और,
घर की मालकिन साफ-सफाई में रह गई;
बड़ी दिलचस्प है इस घर की दास्ताँ भी,
बाप मरता रहा, औलादें लड़ाई में रह गई;
मैं गिरा तो फिर गिरता ही चला गया,
कमबख़्त, ये ज़मीं भी किसी खाई में रह गई ।-
हर-रोज़ की लापरवाही का खामियाज़ा छिपा रखा है,
किसी ने कम तो किसी ने ज़ियादा छिपा रखा है;
हर कोई हाथों में नमक लिए फिर रहा है यहाँ,
लिहाज़ा सब ने एक ज़ख़्म ताज़ा छिपा रखा है;
कहीं बेईमानी में ज़िन्दजी महफूज़ न समझे बच्चे,
उनसे हर ईमानदार शख़्स का जनाज़ा छिपा रखा है;
शतरंज का खेल हू-ब-हू हुक़ूमत सा ही लगता है,
न जाने कितने प्यादों ने एक राजा छिपा रखा है;
मंज़िल की चाह तुझे भूलभुलैया ले आयी 'अच्युतम',
थोड़ा हाथ-पाँव मार, अंधेरों ने दरवाज़ा छिपा रखा है ।
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इस शाम फिर खाने की बर्बादी आयी है,
गाँव में अमीरों के घर शादी आयी है;
इससे क़ीमती तोहफ़ा क्या होगा परदेसियों को,
गाँव की मिट्टी लेकर जो आज दादी आयी है;
सही बताया था कि अजीब मौत आएगी मेरी,
नींद मुश्किल से खुली तो देखा आँधी आयी है;
नजरें चुराने लगीं हैं मेरे मोहल्ले की लड़कियाँ,
देखा है जब से मेरे चेहरे पर दाढ़ी आयी है;
हुक़ूमत जाने तरक्की की दुश्मनी साँसों से कैसे,
जो हाथों में फसल की बजाय कुल्हाड़ी आयी है ।-
तुम ग़र गुम होना तो होना किसी रूबाह की तरह
मैं फिर किसी शाम का इंतज़ार कर लूँगा हर सुबह की तरह ।-
शौक में आप कल जाइए,
आज थोड़ा सँभल जाइए;
शम्स सा जलते हैं आप तो,
शम्स जैसा ही ढल जाइए;
अब बहलता नहीं दिल मिरा,
सोचकर यूँ बहल जाइए;
बाढ़ आयी जो बस्ती में ग़र,
अश्म में फिर बदल जाइए;
नेकनीयत रखा हो अगर,
नोट बेशक कुचल जाइए;
ज़िन्दगी आग का खेल है,
खेल कर आप जल जाइए ।-
लोग बोलते हैं माँ एक तारा बन चुकी है
घर से भाग निकला एक टूटता तारा देखकर...-
शाम होने को आयी आफ़ताब बदल रहा है,
उसके चेहरे की रौनक से मेहताब बदल रहा है;
शोरगुल से कहता था कि इक ख़ामोशी हूँ मैं
न जाने फिर क्यों अब मेरा जवाब बदल रहा है
इतना मुनासिब नहीं ख़िज़ाँ का इंतज़ार,
कि मिट्टी को देखकर गुलाब बदल रहा है;
शजर गिरे तब जाकर कहीं मालूम पड़ा,
हवाएँ धीमी ही थी, तालाब बदल रहा है;
इस फ़िराक में कि शायद मुलाक़ात हो जाये,
ये पागल हर-रोज़ अपने कसाब बदल रहा है ।-
सब तुझे पाने के लिए मरने लगे,
तुझे पाएँगे कैसे ग़र यही करने लगे;
गर्म हवा के झोंके गलत-फ़हमी कर गये,
पत्ते खिजाँ समझके ख़ुद झरने लगे;
ये शहर अब मुझे गाँव सा लगने लगा,
बच्चे ज़िद छोड़कर पतंगें पकड़ने लगे;
इस घर में ग़रीबी की बीमारी फैली है,
बच्चे वक़्त से बहोत पहले चलने लगे;
उड़ रहे हैं ये जहाज़ और धुँए आसमाँ में,
ज़िन्दगी सलामत रखने परिन्दे उतरने लगे;
जो आवाम चाहती है वो तो दिखा ही नहीं,
तस्वीर लगाकर वो हर अख़बार भरने लगे ।-
वो जो कुछ भी बोलें सब चल जाएगा,
कुछ साल बाद मामला बदल जायेगा;
माँ कहती है चूल्हा मिट्टी का है बेटा,
दूर जा कर बैठ तेरा हाथ जल जाएगा;
कुछ जुटा ले बच्चों की पढ़ाई के खातिर,
वो बाप हर-रोज़ बाज़ार तक पैदल जाएगा;
सर्दियों में दम तोड़ रहे हैं वो लोग,
चुनाव में जिनके घर कंबल जाएगा;
तू शायर तो तब कहलाएगा न 'अच्युतम',
जब इस कलम से कोई पत्थर पिघल जाएगा।-