Achyutam Yadav   (अच्युतम यादव 'अबतर')
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Joined 17 December 2019


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Joined 17 December 2019
24 JUN AT 17:52

मरहले हो जाते हैं सब ख़ाक मेरी ज़िंदगी के
मैं तमाशे पे तमाशा देखता हूँ बे-दिली के

कोई कितना भी हो सुन्दर, ख़ामियाँ होती हैं सब में
हद समझते क्यूँ नहीं हैं लोग इस जादूगरी के

ये भले ही फूल जैसे हों मगर धोका न खाना
भूलना मत ये कि ये बेटे हैं आख़िर ख़ार ही के

ख़ौफ़ खाते थे कभी ख़ुद ही समुंदर इससे लेकिन
काट डाले हैं किसी ने पाँव इस ज़िद्दी नदी के

तुमको तो बेज़ार होते देखा है मैंने मिरे दोस्त
क्यूँ गिनाए जा रहे हो फ़ायदे तुम आशिक़ी के

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18 JUN AT 4:13

"वो चेहरा"

ग़मज़दा शब में वो चेहरा
मेरे दिल के कहकशाँ में
यूँ चमकता है किसी तारे की मानिंद
नूर बे-माना नहीं जिसका कहीं से
मेरे चेहरे पे चमक है जिस ज़िया से
चोट तारीकी को करती है मुसलसल
ऐसी तारीकी कि जिस में
दफ़्न है मेरी तजस्सुस
कोई चेहरा देखने की
कोई अपना ढूँढ़ने की

पर ये तारा दस्तरस में ही नहीं है
रौशनी से इसकी कब तक और बहलूँ
फिर सवेरा होगा और फिर
मैं उसी तारीकी में ही
घुट के रह जाऊँगा आख़िर

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16 JUN AT 8:33

रह गया क़िस्सा अधूरा ज़िंदगी का
कुछ नहीं निकला नतीजा ज़िंदगी का

हम अकेले चाहने वाले नहीं हैं
मौत भी करती है पीछा ज़िंदगी का

कर लिया था फ़ैसला पाने का तुमको
पर कुछ और ही फ़ैसला था ज़िंदगी का

चाहता है कौन मंज़िल पे पहुँचना
कोई कर दे रस्ता लंबा ज़िंदगी का

पर लगाके उड़ गईं साँसें हमारी
टूटा जैसे ही ये पिंजरा ज़िंदगी का

अजनबी बनके रही ता-उम्र ‘अबतर’
याद रह पाया न चेहरा ज़िंदगी का

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3 JUN AT 17:53

ख़ुद से ज़रा ख़फ़ा हूँ मैं आम आदमी हूँ
ख़ुद पे ही इक सज़ा हूँ मैं आम आदमी हूँ

कोई वजूद मेरा मिलता नहीं किसी को
बस यूँ ही जी रहा हूँ मैं आम आदमी हूँ

रस्ते मिले न मुझको जो औरों को मिले थे
तन्हा ही मैं खड़ा हूँ मैं आम आदमी हूँ

ज़रदारों में नहीं दी अपनी मिसाल मैंने
कब से ये कह रहा हूँ मैं आम आदमी हूँ

कोई न हल निकाले कोई न याद रक्खे
इक ऐसा मसअला हूँ मैं आम आदमी हूँ

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31 MAY AT 19:26

हर सितारा भला निहाँ क्यूँ है
इतनी ग़ुर्बत में आसमाँ क्यूँ है

ग़म भला आपको मियाँ क्यूँ है
पूछा है आप से ही हाँ, क्यूँ है

दिल छिपाना था दिल के अंदर ही
तेरा दिल चेहरे से अयाँ क्यूँ है 

आतिशों से न खेला ज़िंदगी भर
फिर मिरी क़ब्र में धुआँ क्यूँ है

जब मुक़द्दर में फ़ासला नहीं था
फ़ासला अपने दरमियाँ क्यूँ है

होंगी आँखों से बारिशें लेकिन 
दिल के आँगन में ये ख़िज़ाँ क्यूँ है

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28 MAY AT 22:03

है मालूम क़ीमत मशक़्क़त की मुझको

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27 MAY AT 23:36

उमीद बे-दिली में कोई पाल कर देखो
तुम अपने ख़ून में पत्थर उबाल कर देखो

भले ही जान बदन से निकल गई लेकिन
ज़रा जनाज़ा तो मेरा निकाल कर देखो

यही तरीक़ा है केवल हुनर परखने का
मुझे किसी भी मुसीबत में डाल कर देखो 

उजाले दिन के अगर कम पड़ेंगे रस्ते में 
तो दिन को रात के साँचे में ढाल कर देखो

मैं तेग़ बनके ही आऊँगा एक ख़ंजर से
मुझे मियान में कुछ दिन तो डाल कर देखो

ज़मीन दिल की अगर जीतनी है तो ‘अबतर’
फ़लक में अपने सितारे उछाल कर देखो

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21 MAY AT 16:16

मानो मिल आए अजनबी से हम
जब मिले आज ज़िंदगी से हम

क़र्ज़ लेते नहीं किसी से हम
ख़ौफ़ खाते हैं ख़ुदकुशी से हम

दे सकेंगे फ़क़त उदासी ही
वो भी देंगे नहीं ख़ुशी से हम

एक हसरत रही हमेशा से
तंग आए न शायरी से हम

इस अँधेरे से लड़ना तो होगा
हों भले दूर रौशनी से हम

आप जब पैदा भी नहीं हुए थे
शायरी करते थे तभी से हम

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17 MAY AT 12:28

चंद लफ़्ज़ों की ही कहानी थी
मेरे लहजे में इक रवानी थी

तुम ग़ज़ल सुन के चल पड़ी किस ओर
मुझको इक नज़्म भी सुनानी थी

जिस्म को राख करके क्या मिलता
अस्थियाँ रूह की बहानी थी

जिस दरीचे से आता है साया
उस दरीचे से धूप आनी थी

तन्हा तो इतना थे कि मत पूछो
अपनी अर्थी भी ख़ुद उठानी थी

साए थे ज़िंदगी के हम सब, और 
एक दिन रौशनी तो जानी थी

ख़बरें ज़हरीली बिकती थीं सो मुझे
शायरी से दवा बनानी थी 

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16 MAY AT 22:13

तुमसे मिलने पे कम हुआ है ग़म
और अब ख़ुद ही ग़म-ज़दा है ग़म

हम-नवा जैसे क्यों नहीं हो तुम
ऐसा ख़ुशियों से पूछता है ग़म

फैला दे तीरगी दिलों में ये
इक अजब सा कोई दिया है ग़म

अपने दिल से निकाला क्या इसको
देखो रस्ते पे आ गया है ग़म

आँख भर के मैं जब भी देखूँ इसे
खिलखिलाते हुए दिखा है ग़म

आइने से मुझे मिटाता रहा
मेरी आँखों में जो छुपा है ग़म

टूटा दिल वो दरीचा है जिससे
आदतन रोज़ झाँकता है ग़म

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