मिरे जज़्बात पर कुछ इस तरह तारी है तन्हाई
कि मजमे में भी मेरे साथ ही रहती है तन्हाई
मिलाना हर किसी की हाँ में हाँ बस की नहीं मेरे
मिरी ख़ातिर कहीं बेहतर परेशानी है तन्हाई
बनाके बज़्म इक काग़ज़ पे ख़ुद को ढूँढ़ता हूँ मैं
कोई पूछे तो कहता हूँ यही होती है तन्हाई
मैं इसका ग़म समझता हूँ सो मुझको ऐसा लगता है
कि इसकी ख़ुदकुशी की वज्ह हो सकती है तन्हाई
सहर से शाम तक तो रौशनी से लड़ती रहती है
शबों में फिर कहीं चुपके से रो लेती है तन्हाई
बचा था एक क़तरा अश्क का जो गिर पड़ा आख़िर
तिरे आँखों में अब 'अबतर' फ़क़त बाक़ी है तन्हाई-
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◾️ 𝗩𝗶𝘀𝗶𝘁 𝗺𝘆 𝗯... read more
इश्क़ चाहे पहला हो या आख़िरी हो
ध्यान रखना इश्क़ सच में इश्क़ ही हो
अक्स मेरा है नहीं जिस में मुकम्मल
ज़िंदगी मानो उसी तस्वीर सी हो
हो न इतनी भी मसर्रत दस्तरस में
जिस तरफ़ भी देखूँ हर कोई दुखी हो
अब तुझे अपने सुख़न में ढालना है
तेरी पायल की भी धुन पर शायरी हो
है वहाँ तस्वीर और फूलों की माला
चाहता था मैं जहाँ पर इक घड़ी हो-
रंज-ओ-ग़म ही दिल में गूँजे तब भी अब भी
रह गए सपने अधूरे तब भी अब भी
ढूँढ लेता मैं ख़िज़ाँ में मौसम-ए-गुल
साथ गर तुम मेरा देते तब भी अब भी
बचपना ऐसा खिलौना है कि जिसको
खो दिया करते थे बच्चे तब भी अब भी
वो मुसलसल मुझसे होता ही रहा दूर
आए तो आँसू ही आए तब भी अब भी
मसअला ये है कि तेरा लहजा है तंग
बातें तो हम मान लेते तब भी अब भी
ख़ूबसूरत कितने हैं रुख़्सार तेरे
थे सहर के रंग जैसे तब भी अब भी-
मिट गयी ख़लिश न जाने कब मुझे नहीं पता
काटों की लगी है क्यों तलब मुझे नहीं पता
दरमियान में हूँ मैं उजालों और अँधेरों के
दिन खिला हुआ है या है शब मुझे नहीं पता
ख़ुश बहुत है मुझ से हमसफ़र मेरा न जाने क्यूँ
ऐसा मुझ से क्या हुआ गज़ब मुझे नहीं पता
मैं तो चाहता हूँ पूछे कोई हिज्र के भी दुख
हँसते हँसते मैं कहूँगा तब मुझे नहीं पता
आँखें, नाक, कान, गाल तो हसीन थे बहुत
क्या थे इतने ही हसीन लब मुझे नहीं पता
आसमाँ भी पार कर लिया अब उन की साँसों ने
उन की यादें थक के बैठीं कब मुझे नहीं पता-
सच यही है ये कोई सफ़ाई नहीं
इश्क़ करने में कोई बुराई नहीं
बद्दुआ दिल से दी उसने मुझ को मगर
उम्र मेरी ज़रा भी घटाई नहीं
ख़ामियाँ तो गिना सकता था मैं मगर
नीव यारी की मैंने हिलाई नहीं
माँग भर दूँगा तेरी मैं लेकिन ये क्या
तू ने माथे पे बिंदी लगाई नहीं
मुझ से छीना है इक हादसे ने उसे
वज्ह हर हिज्र की बेवफ़ाई नहीं-
न जाने कितनी रंजिशों को मैंने दिल में दी जगह
न जाने कितने ग़म हैं जो मुझे मकाँ समझते हैं-
शाम हो या सुब्ह माँ को तारा बतलाते हैं सब
दौड़ निकला घर से इक दिन गिरता तारा देखकर-
इतनी बरकत मुझे अता न करो
करनी भी हो तो बारहा न करो
वो तुम्हारे ही राह की हो तो ठीक
हर मुसीबत का सामना न करो
तोड़ कर देखना जो कुछ भी मिले
रिश्तों में ऐसा बचपना न करो
अपनी मंज़िल पे मैं पहुँचता नहीं
मेरे नक़्श-ए-पा पे चला न करो
हिज्र से मुझ को मर ही जाने दो
मेरे इस दर्द की दवा न करो
कुछ तो ख़ुद्दारी है अँधेरों में
रौशनी भीक में लिया न करो-
फिर से मुझ को डुबो दी 'अबतर' तन्हाई की एक नई लहर
मैं सोचा कि मुहब्बत करके ये दरिया हो जाएगा पार-
भर दो मेरे मक़बरे को और फूलों से ज़रा
है ख़फ़ा मुझ से फ़ना उसको मनाना भी तो है-