बड़ी कातर थी दृष्टि उसकी
किसान था शायद ।।
बैठ गद्दी पर लगा रहा था
हिसाब उसके खून पसीने का
साहूकार था शायद ।।
बाढ़ में डूबती उत्राती
ज़िन्दगी थी उसकी , वोटर था शायद
कर रहा था जायज़ा ऊपर आसमां से
जनप्रतिनिधि था शायद ।।
हकीकत है इस समाज की
सुनकर सह भी ना पाओ शायद ।।
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