मुझे अपना क़लम दराज़ से उठाना ही पड़ा
ऐ मेरे गाँव आज फ़िर से तेरे बारे में लिखना ही पड़ा
याद है मुझे सर्द मौसम का ये समां
कच्ची दीवारों में था जो मेरा बचपन जड़ा,
खेतों की क्यारियों में कहीं बचपन का बनाया एक आशियाना गड़ा।
जाने दे ऐ दोस्त मुझे ,उसको निकालना जो बाकी पड़ा।
हो जाता शाम को जमघट उस पनघट पर,
जिनके पायलों का झंकार सुनना बाकी पड़ा,
जाने दे ऐ दोस्त मुझे ,मेरे गाँव के चौपाल में
ताश-पते, चौपड़ खेलना जो बाक़ी पड़ा।
ऐ मेरे गाँव आज फ़िर से "बुलशेर" को तेरे बारे में लिखना ही पड़ा।
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