नाज़नीं खोल कर लटें अपनी
ओढ़नी से उतर रही होगी
फिर दरीचे में आ गया चंदा
जाने जानाँ निखर रही होगी
झांझ, नथ और बिंदिया, झुमका
आईने में सँवर रही होगी
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//ग़ज़ल//
राँझणा नहीं लिखता, हीर के नसीबों में
रब तिरी अदालत में क्या सदाएँ आती है
(Read in Caption)-
कतरा कतरा पिघल रही होगी
तन्हा तो वो भी जल रही होगी
बिखरा होगा कनार का काजल
नींद अश्कों में ढ़ल रही होगी
रुख़ पे होगा जो ज़ुल्फ़ का परदा
जान करवट बदल रही होगी
दिन तो मौजों में कट गया होगा
रात आहों में पल रही होगी
रूह में मिल गया हो "दीवाना"
हसरत-ए-दिल मचल रही होगी-
हमने ख़ुद ही तबाह कर ली ज़ीस्त
इस से बढ़कर, बवाल क्या होता
अब जो मैं हूँ जवाब-ए-मर्ग-ए-वफ़ात
सोचता हूँ सवाल क्या होता
जिनपे नज़्में लिखी गईं खूँ से
वो ही कहते हैं लाल क्या होता
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इश्क़-दारी से मुकर गया हूँ मैं
जान बाकी है के मर गया हूँ मैं
राह कोई मुझ तलक नहीं आती
राह दिल की जब उतर गया हूँ मैं
ज़ाहिरा ग़म में यहाँ नहीं कोई
ग़म-ए-जानाँ में जिधर गया हूँ मैं
दर्द बढ़ता है शराब - ख़ाने में
जाम खाली है के भर गया हूँ मैं
कशमकश में है तिरा ये 'दीवाना'
तुझ में सिमटा या बिखर गया हूँ मैं-
दर्द का व्यापार है क्या
इश्क़ में मिट जाए हस्ती
हसरतों का वार है क्या
जब भँवर में डूबे माँझी
आर क्या है पार है क्या
रोये क़ातिब झूमे महफ़िल
और अब संसार है क्या-
जान आ जाए कुछ तबीयत में
दर्द दीजै मुझे नसीहत में
उसकी आँखें थीं मयकदा वरना
ऐब तो था न मेरी नीयत में
इश्क़ पर यूँ नहीं किये फ़तवे
हो कोई जुर्म भी शरीयत में
इसमें अब मेरा दोष क्या होता
जो दिखा मैं न मेरी सीरत में
यारो कुछ तो करो न हंगामा
गर्त हासिल हुआ फ़ज़ीलत में
अब भी क्या ख़ाक हो न 'दीवाना'
आग दे कर गया अक़ीदत में-
फ़लक सिरहाने अंगारा पड़ा है
शमा को ख़ूब हर्जाना पड़ा है
अज़ल से ही हुई ना कोई दस्तक
दर-ए-दिल पर मिरे ताला पड़ा है
लुटेरे सब ठिकाना ढूंढते हैं
शहर में मेरे जब छापा पड़ा है
लिये फिरते हो खाबों का कफ़न क्यूँ
उमीदों पर भी क्या फ़ाक़ा पड़ा है
कि अब किस से कहूँ मैं दर्द अपना
समंदर भी यहाँ प्यासा पड़ा है
सुना, उसके शहर का सूरत-ए-हाल
वहाँ हर शख़्स 'दीवाना' पड़ा है-
हुस्न-ए-महशर का इंतिज़ाम करें
शह्र-ए-ख़ूबाँ में कोहराम करें
उम्र बीती गई तकल्लुफ़ में
मतलब-ए-दिल भी कोई काम करें
हर नज़र उठ गई मिरी जानिब
रंजिश-ए-दिल बयान-ए-आम करें
अब मिरे पास मेरा क्या ही रहा
एक ग़म है सो तेरे नाम करें
मुफ़लिसी देखती नहीं मज़हब
बैठ मस्ज़िद में राम राम करें
दिल नहीं मानता किसी सूरत
दिल की ख़ातिर ही तामझाम करें
शब बसर करके ज़ुल्फ़-ए-जानाँ में
उम्र भर हिज्र में क़याम करें-
सम्त-ए-दिल से तिरी सदा आई
अब जो आई तो फिर बजा आई
सब उमीदें वहाँ हुईं मिस्मार
ये उदासी जहाँ समा आई
बेदिली लापता हुई थी रात
आरज़ू घर मिरा बता आई
अबके बेरंग है घटा जानाँ
रंग-ए-साया कहाँ लुटा आई
सब तो पूछा किये तिरे हालात
शाइरी ग़म मिरा सुना आई
हमने लिक्खा बयान-ए-दीवाना
नक्श तेरा फ़ज़ा बना आई-