वोह बार बार चोट पहोचाता रहा, मैं ज़ख्म ले कर घूमती रही; वोह बार बार हक जताता रहा, मैं कोई और हमसफ़र तलाशती रही; उसे एहसास ना हुआ मेरे दर्द का, और उसके लिए मेरी नफ़रत बढ़ती रही।।।
फ़ुरसत का दरिया मुझसे ही बना होगा; मुझ जैसा आलसी कबी ना जन्मा होगा; यह तो अंदाज़ का मामला है मेहबूब, तुम सा साथी भी अगर ना मिला होता; तो मेरा यह अंदाज़ भी ना रहा होता।।।।।