मेरी मेज़ की दराज़ में
अनगिनत अधूरी सी जो कवितायें हैं
सुबह ओ शाम दराज़ खुलते ही
मेरे हाथ से टकरा जाती हैं
मुकम्मल होने की आस से
ज़रा सी रोशनी पाकर इनके
अधूरे शब्द मोती से खिल उठते हैं
पर अफ़सोस मेरी उँगलियों के छाले
डरते हैं इन्हें पूरा करने से
की ये घाव कहीं गहरे ना हो जायें
या इन छालों का गंदा पानी
लहू में ना रिसने लग जाये
अक्सर यूँ ही अनगिनत अधूरी कवितायें
मुकम्मल कहानियां बन जाती हैं
जिन्हें बस ज़ख्मों के डर से
कभी पूरा नही किया जाता।।
-साहिबा
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