कितना कुछ जो हम लिख देना चाहते हैं
और बहुत कुछ जो लिखे के बीच की खाई पाटे
बहुत कुछ सुनते हैं हम फिर भी
सुनने लायक कान तक पहुंच छन्न से गायब
ताकते हैं आसमान पर भूल जाते हैं ठीक उसी वक़्त
ताकता है वो भी हमें खालीपन से
सवालों के ढेर पर बैठ
ज़िंदगी का सिरा पीछे छूट जाता है
क्यूं,कैसे,कब,कहां,उफ्फ,दुख में
इन्द्रधनुष अपने सब रंग छोड़ कहा गया नहीं पता
कौन भेदे कविता का मौन
जब धैर्य ना पाए एक भी शब्द।।
साहिबा
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