पिता का साया जब तक मेरे सर पर था,
फिर न मुझे कोई डर पहर का था I
आसान थी फिर सभी राहें मेरी,
जब तक उसका हाथ मेरे काँधे पर था I
ज़िन्दगी के फलसफ़े उसी से सीखे थे सारे,
वो उस्ताद कोई और नहीं मेरे घर का था I
उसकी मौजूदगी से घराना आबाद रहता था,
मुंसिफ़ था वही, सारा फैसला उसी का था I
उसके जाने के बाद फिर ना हुआ रोशन चिराग़,
हवेली में हमारे नूर उसी के नाम का था I
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