बिकते-बिकते हम बाजार हो गए।
देश के दंगों से कितने शर्मशार हो गए,
रूधिर के प्यास में संसार से उजियार हो गए,
मुसलमां हुए तो जश्न हुए, हिन्दू हुए तो त्यौहार हो गए।।
शायद हां!
बिकते-बिकते हम बाजार हो गए।।
बेटियां सहम के रह गई घर में,
क्या इतने हम बेजान हो गए।
निर्भया जैसी घटनाएं
कैसे सरेआम हो गए?
दो दिन उठती हैं आवाजें,
फिर सब अपने काम में परेशान हो गए।
जाने कैसे,
बिकते-बिकते हम बाजार हो गए।।
एक मेडल ना आया खेल में,
क्या इतने हम बर्बाद हो गए?
क्यों मिलता ना इनको मददगार
जब रहते हैं ये लाचार,
सुशील और साइना की राह,
जीतने के बाद आसान हो गए।।
जी, बिल्कुल!
बिकते-बिकते हम बाजार हो गए।।
देश के युवा नशे के रथ पे सवार हो गए,
इस दुनिया से बेगाने, सुर्ख-ए-जान हो गए।
ना आज कि चिंता, ना कल कि फिक्र
इतने भी कैसे खुद से अंजान हो गए।।
आखिर क्यों?
बिकते-बिकते हम बाजार हो गए।।
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