उन्होंने बाँहों में समेट रक्खा था काफी देर से,
हमने आँखें मल दी और ख़्वाब धुँआ हो गया।
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हर रात उनकी याद मेरे सिरहाने
दबे पांव चुपके से बैठ जाती है,
लाख कोशिशों के बाद भी कज़ा
का जोर चले भी तो कैसे चले।
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तुम बाँहों में आ जाओ इतने महंगे ख़्वाब नहीं रखते हम,
बस एक रात के लिए ख़्वाब में आ जाओ वही काफी है।
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आख़िर कौन सा तिलिस्म है तेरी छाँव में,
सामने आते ही लफ्ज़ पत्थर हो जाते हैं।
बयाँ नही कर सकते वो धुँधला एहसास,
जिस के आते ही इंसान ईश्वर हो जाते हैं।
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फ़क़त तेरे दीदार की आस लगाए बैठा हूँ,
घर से बाहर आ जा डोली सजाए बैठा हूँ,
यूँ तेरा हल्का सा होंठ दबा कर मुस्कुराना,
बस इसी तसव्वुर को ख़्वाब बनाए बैठा हूँ।
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महफ़िल रास नहीं आती और
ख़ल्वत काटने को दौड़ता है,
जिस रोज़ मेरे ज़हन में तेरे
ख़्यालात परत दर परत खुल
कर अंगड़ाईयाँ भरने लगते हैं।
*ख़ल्वत = एकांत
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जब उस के हाथों ने पैमाना-ए-मय को उठाया,
शराब पानी और पानी लज्जा से हवा हो गया।
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गर्मियों में अपनी मोहब्बत भरी फूँक से
तेरे पसीने से तर माथे को हम हवा देंगे,
तुझे बाहों में भर कर होंठों से तेरी ज़ुल्फें
संवारेंगे और सूरज को भी जला देंगे।
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आँखें है मखमली, चाशनी से बना बदन,
होंठो की क़यामत, झुमकों की करामात,
आग से बना पक्का रंग, जवानी का सितम,
ख़ुदा ख़ैर करे।
(**पूरी कविता कैप्शन में पढ़ें।
2018 की प्रथम कविता**)
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मैं जब भी नमाज़ में होता हूँ ख़ुदा
से फ़क़त एक गुज़ारिश करता हूँ,
तेरे चेहरे का नूर हमेशा बना रहे
बस इतनी सी सिफ़ारिश करता हूँ।
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