लिखूं कोई खता तो मुकाम भूल जाता हूँ.
शाम होते अपना ही मकान भूल जाता हूँ.
जाम की शाम में तेरा ही नाम भूल जाता हूँ
मैं हर बार परखना इन्सान भूल जाता हूँ.
वक़्त के रंगों का कभी गुमान भूल जाता हूँ.
खाली जेब ख़रीदना सामान भूल जाता हूँ.
लफ्जों में शहद जुबाँ का जहर भूल जाता हूँ .
काली सोच का मैं काला ईमान भूल जाता हूँ.
पिंजरों में देख परिंदो को मान भूल जाता हूँ
जमीं का चुकाना कर्ज लगान भूल जाता हूँ-
17 SEP 2021 AT 13:00