समर्पण में स्वतः सुख की बात नहीं होती है,
ये तो आत्मसात होने का एक जरिया होता है।
समर्पण में स्वेच्छा का भाव कम,
और पर- सहमति की आवश्यकता होती।
समर्पण में विलीन होने का भाव ज्यादा होता है,
दिखने का भाव नहीं होता।
समर्पण में स्वयं को अर्पण करने की बात होती है,
पाने की बात ही नहीं होती।।-
8 JAN 2022 AT 19:35