किसी दोस्त ने कहा अपने शहर के बारे में कुछ कहिए...
मैं कुछ देर सोची...फिर मुस्कुराई...उनकी बात पर नहीं परन्तु अपनी सोच पर......
मुझे तो पल भर में जयपुर के हवामहल से लेकर हरिद्वार का परमार्थ घाट,गाजियाबाद की गंगनहर,बनारस का अस्सी घाट सब याद आ गया।मैं कैसे बोलूं की मै कभी एक जगह की हो ही नहीं सकती....मुझे तो जयपुर की प्याज-कचोरी,ऋषिकेश की अंजीर की मिठाई,बनारस की रसमलाई,जोधपुर के दही भल्ले,सब कुछ पसंद हैं...और एक थाल में सब मिल जाए तो कहीं पागल ना हो जाऊं मैं...मैं अलबेली सी किसी एक जगह को अपना या अच्छा बताकर दूसरे से अपनी घनिष्ठता कम नहीं कर सकती।
पर हां....बस अपनी राख को ऋषिकेश में गंगा मैया में विसर्जित करवाने की इच्छुक हूं।-
साहब पता है मुझे दूसरों के चोंचले नही पसंद
क्यों अब क्या कर दिया सचदेव दूसरों ने,
वही मतलब साल में एक दिन 'रोज डे' मना लिया
और पूरे साल का कोटा पूरा कर लेते हैं लोग,
देखते हो साहब, उस दिन फूल वालों के भी
क्या ठाठ-बाट और नखरे होतें है ना साहब,
दस का गुलाब, पचास में देते हैं साहब
हां वो तो है तुम सही कह रही सचदेव,
पर बिन मौसम ये गुलाब की बात कहां से आ गई
बस यूंही सोच रही की वैसे तो दस का ही मिलता है,
हां, बेचारे फूल वाले सचदेव उनका घाटा होता है रोज
तो तुम ही उनका फ़ायदा क्यों नही करा देते साहब,
मेरे साहब लाल मुझे कुछ खासा पसंद भी नही है
तुम अपनी पसंद का नीला गुलाब ही ले आया करो,
कोई पूछेगा तो बोल दूंगी कि नीला गुलाब पसंद है उन्हें
और मेरे नसीब में लाल गुलाब लिखा भी कहां हैं,
बताओ फिर किस फूल वाले से बात करनी है
पूरे महीने की, लाना तुम पर, मोल-भाव मैं करती हूं,
क्योंकि घर का भी तो देखना है ना सचदेव को
बेफालतु का खर्च वो नही करती साहब।-
कलम की स्याही को रंग बिखेरे काफी दिन हो गए थे
उंस को इबारतों में जिए बहुत दिन हो गए थे,
घर में बाकी लोग काफ़ी पहले सो चुके थे
ख्यालों को इधर-उधर टहले बरसों हो चुके थे,
निगाहों को नम हुए काफ़ी दिन हो गए थे
खुल के मुस्कुराए भी बहुत दिन हो गए थे,
उनकी यादों के शहर में इतना रह जो चुके थे
अपने शहर को कब का हम भूल चुके थे,
खुद से बात हुए काफ़ी दिन हो गए थे
इबारतों में हम दोनों को मिले बहुत दिन हो गए थे।-
रंग रंगीलों, वीरा रो मेलों
सबसे निरालो है ये महारों राजस्थान
कण कण में कहानी बसें जहां, ये है माटी राजस्थान...
सूर्य यहाँ सिंदूर लुटाए
संध्या भी मन मोह जाए
कोई है झीलों की नगरी
तो कोई है तालाबों, बावड़ियों की रानी....
ऊंचे ऊंचे किले यहाँ है
वीर, वीरांगनाओं की गाथाएँ जहां है
गोडावण का घर है ये तो, है बाघों का निवास यहाँ...
कहीं गूंजे भजन मीरा के
तो कहीं दादू, रैदास से अवतारी
स्वामी भक्त इंसान ही नहीं यहाँ पर
चेतक जैसे जानवर स्वामिभक्त यहाँ भी...
दुर्ग दुर्ग में शिल्प सलोना, छू जाए दिल का हर कोना
हर नारी दुर्गा, तो हर पुरुष में प्रताप यहाँ है
मिट जाए माटी की ख़ातिर ऐसा वीर महान है...
पूर्व में घने वन है यहाँ तो, पश्चिम में रेतीले टीले
मिट जाए खेजड़ी पेड़ों की ख़ातिर
ऐसे लोग रहते यहाँ भी...
रंग रंग के लोग रहे यहाँ, रंग रंगीला पहनावा है
भिन्न भिन्न की बोली बोलें सब
फिर भी कहलाए एक सब यहाँ है....|||-
ऋषिकेश मेरे सपनों का जहां..जहां का जर्रा-जर्रा सिर्फ खूबसूरत है,कभी लक्ष्मण झूले पर खड़े हो जाओ...जो सनसनाती सी हवा रूह को छूकर जाती है,तो रूह भी मानो कहती है कि सचदेव तुझे जाना है तो जा पर मुझे यहीं छोड़ दे,उसका और मेरा साथ तो शमशान तक है ये भी अक्सर भूल जाती है वो ।
लक्ष्मण झूले से राम झूले का मनोरम रास्ता यूहीं गुजर जाता है,फिर त्रिवेणी घाट पर बैठकर मां गंगा से जो भी सवाल जवाब होते हैं मन ही मन कर लिया करती हूं मैं,फिर जब अलविदा कहने का वक़्त आता है...तो अपनी मां से आज्ञा लेने का मन नहीं होता,तो मां भी कहती है कि जा बेटी मुझे पता है तू जल्द ही आएगी।
हमारा रिश्ता है ही ऐसा.....
#ऋषिकेश_डायरी
#मां_गंगा-
दर्द जितने लिखने थे उतने
लिख दिए हैं ख़ुदा ने,
पर खुशियां बांटने से वंचित
रख नही सकता मुझे,
सो माह में दो लोग भी सच
में खुश हो गए सचदेव से,
सचदेव का ये अधूरा जीवन
सफ़ल हो जायेगा साहब,
और दो एकदम अनजान
लोग साहब क्योंकि,
अपनों की खुशी कभी मिलके
भी ना मिलेगी साहब।-
मोहब्बत थी या तक़ाबुल
ये तो हमने तब जाना साहब,
जब तुम्हारे रकीब ने हर्बा मेरे
कल्ब को तोड़ने के लिए
चला दिया था साहब,
दर्द तब हुआ था साहब
पर आज फक्र हैं वो
हर्बा धंसा ना होता कल्ब में
तो हम क्या मिल पाते साहब।-
साहब, सचदेव और कार्ड
साहब पता है, सचदेव ने सारे बचपन के कार्ड और ख़त
अब तक सहेज कर रखे हैं,
तो उसमें क्या ही नई बात है, सचदेव ऐसे अतरंगी
शौक़ तो बहुतों के होते हैं,
साहब कभी गलती से एक कार्ड ले आओ बाज़ार से
पता है तुम्हें, मैं चहक उठूँगी,
अच्छा चलो कार्ड में दुकान वाले बहुत लूटते हैं..
कभी कोई ख़त लिख दो मेरे नाम,
जब तुम काम में तल्लीन मुझ पर ध्यान भी नही दोगे,
मैं उसे रोज़ पढ़ लिया करूँगी,
और तुम्हारे ख़त को पढ़कर, तुमको महसूस करके मैं
अपने सारे ग़म भूल जाया करूँगी,
एक ख़त की बात करती हो मेरी जान तुम पर तो
एक किताब लिख दे साहब,
पर अभी बहुत काम हैं, कुछ दशक इंतज़ार कर लो
बुढ़ापे तक लिख दूँगा सचदेव,
फिर तुम इत्मीनान से पढ़ लेना और पढ़कर मुझ को
भी सुना लेना सचदेव,
भूल जाओ इस बात को साहब,तुमसे इश्क़ किसी की
सबसे बड़ी भूल थी साहब।-
तुम्हारी मोहब्बत के रंग का असर है साहब
मेरी आबोहवा में सिर्फ़ तुम्हीं, तुम हो साहब,
कि बेहोशी में भी लगता है कि तुम आके संभाल लेते हो
मेरे दर्द पर अपना हाथ फेरकर छूमंतर सा दर्द भगा देते हो,
जब सिर बहुत तेज़ से फटने लगता है मेरा साहब
तो तुम उसे अपने कंधे पर रखकर सारा दर्द गायब करते हो साहब,
जब नींद ना आती है रातों में मुझको तो धीमे-धीमे
से गाना गुनगुनाकर तुम्हीं तो सुला देते हों साहब,
जब खाना निगला नही जाता है मुझसे साहब तो तुम्हीं बातों में
उलझा मुझे छोटे-छोटे निवाले खिलाते हो साहब,
मुझ जैसी अहमक को सिर्फ़ तुम संभाल सकते हो साहब
मोहब्बत के और कितने रंग दिखाओगे साहब।-
साहब तेरी कमी महसूस हो रही है
हमारे अपने जहां में पता है,
इस बार जब से आई हूँ यहां
तो बस तेरी झलक पाने को मुंतजिर हूँ,
हां, पता है मुझे तुम आने वाले नही साहब
पर ख़ुद को भ्रम में डालने का ये ख़याल,
बिलकुल बुरा तो नहीं साहब
कि गलती से कहीं तुम दिख जाओ साहब,
तो सचदेव की बल्ले-बल्ले हो जायेगी साहब
यहां का मौसम भी खुशनुमा हो रहा है,
तो सामान बांधों और आ जाओ यहां साहब
लॉकडाउन का बस ख़याल रखना साहब।-