रोज़ शाम मैदान में बैठ ये कहतें हुए एक बच्चा रोता है,
हम गरीब है इसलिए हम गरीब का कोई दोस्त नही होता है।।
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खिजाएं मौसम बदल गए हैं
फिजाएं शोखी को तुम भी बदलो
उस दरख़्त के नीचे गरीब बच्चा दिए को अपने जला रहा
गुलों की शेखी बदल दी उसने
वक्त की करवट पलट दी उसने
ज़रा तो देखो गरीब बच्चा बंद आंखों में ख्वाब अपने सज़ा रहा है
कहीं तो उसको जगह दे दो
कुछ तो पेड़ों को छोड़ो यारों
उस दरख़्त के साए में गरीब बच्चा बसेरे अपने बना रहा है
गरीब है तो क्यों भागना
अमीर हो तो क्यों बुलाना
ये बचपन है उसका भी आखिर
जो सामने बैठा गरीब बच्चा घिरौंदे अपने बना रहा है
वक्त रुख भी पलट गए हैं
दरिया की लहरों तुम भी बदलो
की साहिल के किनारे बैठा गरीब बच्चा नाव अपनी बना रहा है
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प्रायवेट में पढ़ते हैं ना!
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हस्ताक्षर की बात
हस्ताक्षर से हो,
पर पहले कलम तो
ठीक से पकड़ लेने दो!
तुम कुर्सियों पर बैठकर
कलम छुड़ाने की
साजिशें न करो,
लगता है
मिल गये हो तुम दोनों
काला अध्याय लिखने के लिये,
ठीकरा निश्चित ही
तुम मास्टरों पर फोड़ोगे!
तुम्हारे बच्चे तो
'प्रायवेट' में पढ़ते हैं ना!
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✍️ गोपाल 'जिगर'
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